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निजता का अधिकार एवं जासूसी

।। सुधांशु रंजन।।(वरिष्ठ पत्रकार) केंद्र सरकार ने गुजरात सरकार द्वारा एक महिला की कथित रूप से की गयी जासूसी की जांच के लिए एक आयोग के गठन का फैसला किया है. इससे पहले गुजरात सरकार ने भी इसकी जांच के लिए एक दो सदस्यीय आयोग का गठन किया है. गत 19 नवंबर को जब एक […]

।। सुधांशु रंजन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)

केंद्र सरकार ने गुजरात सरकार द्वारा एक महिला की कथित रूप से की गयी जासूसी की जांच के लिए एक आयोग के गठन का फैसला किया है. इससे पहले गुजरात सरकार ने भी इसकी जांच के लिए एक दो सदस्यीय आयोग का गठन किया है. गत 19 नवंबर को जब एक स्टिंग के जारिये खुलासा हुआ कि अगस्त, 2009 में राज्य सरकार द्वारा महिला की निगरानी करवायी गयी, तो राज्य सरकार की त्वरित प्रतिक्रिया आयी कि ऐसा उसकी सुरक्षा को ध्यान में रख कर किया गया, जिसके लिए उसके पिता ने ही मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अनुरोध किया था. राज्य सरकार ने आनन-फानन में जांच आयोग का भी गठन कर दिया. इसके बाद गत 24 दिसंबर को गुलेल डॉट कॉम ने कुछ और ऑडियो जारी कर प्रमाणित किया कि इस निगरानी का मकसद उस महिला को सुरक्षा प्रदान करना नहीं था. गुजरात के खुफिया विभाग तथा आतंकवाद विरोधी दस्ता के अधिकारियों ने उस महिला की राज्य की सीमा के बाहर भी जासूसी की. यहां तक कि उसके होनेवाले पति, माता-पिता, भाइयों एवं दोस्तों की भी निगरानी की गयी. इसमें खुलासा किया गया है कि इस सब का उद्देश्य सुरक्षा देना नहीं था, बल्कि एक ‘साहब’ को उसकी रोमांटिक जिंदगी के बारे में जानने में दिलचस्पी थी. उसके फोन को गुजरात और उसके बाहर इंटरसेप्ट किया गया. उसके ऊपर दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में भी जासूसी की गयी.

इस पूरे प्रकटण में दो मुद्दे उभरते हैं- एक, निजता का अधिकार तथा दूसरा, केंद्र-राज्य संबंध. भाजपा का आरोप है कि विधि-व्यवस्था राज्य के अधीन है, इसलिए केंद्र ने जांच आयोग गठित कर देश के संघीय ढांचे पर प्रहार किया है. उधर, केंद्र सरकार का कहना है कि जासूसी गुजरात तक सीमित नहीं थी. इसके अलावा, इसमें भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 419 (ए) तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम का उल्लंघन हुआ है. साथ ही, टेलीफोन, वायरलेस आदि केंद्रीय सूची के 39वें स्थान पर आता है, जिसकी जांच केवल केंद्र सरकार ही कर सकती है. यहां संघीय ढांचे पर प्रहार से ज्यादा अहम मसला है निजता का. इसलिए इस बात की निष्पक्ष जांच तो होनी ही चाहिए कि इस निगरानी का मकसद क्या था.

नीरा राडिया टेप से उठे विवाद के बाद से केंद्र सरकार निजता की रक्षा के लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है. अब तक इसके लिए कोई कानून नहीं है. पीयूसीएल बनाम संघ (1996) में सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देश दिये हैं कि फोन टैप किन हालात में किये जा सकते हैं. इसमें अदालत ने पहली बार माना कि फोन टैपिंग निजता में घुसपैठ है. अदालत ने कहा कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन एवं व्यक्तिगत आजादी के अधिकार तथा इंटरनेशनल कॉवनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स की धारा 17 के अंतर्गत सुरक्षित है. साथ ही अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में निजता का अधिकार अंतर्निहित है.

अदालत ने निर्णय दिया है कि भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 1885 की धारा 5 (2) के तहत टैपिंग इन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. इसलिए टैपिंग केवल कानून द्वारा निर्धारित उस प्रक्रिया के तहत ही की जा सकती है, जो उचित व न्याय्य हो और अनुच्छेद 19 (2) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने के लिए दिये गये आधारों की परिधि में हो. अदालत ने आगे कहा कि संविधान में निजता को परिभाषित नहीं किया गया है, अवधारणा के स्तर पर यह काफी विस्तृत हो सकता है. लेकिन निजता का उल्लंघन हुआ है या नहीं, यह हर मामले के तथ्य पर निर्भर करेगा. निर्णय में कहा गया है कि टेलीफोन पर बातचीत आधुनिक जीवन का अभिन्न अंग है. यह बातचीत अंतरंग किस्म की होती है, जो व्यक्ति के निजी जीवन से जुड़ी होती है. इसीलिए अदालत ने निर्देश दिया कि फोन टैपिंग की निगरानी के लिए केंद्र व राज्य ओवरसाइट कमिटी गठित करें, जिसका अनुपालन अभी नहीं हुआ है. केंद्र इस बारे कानून बनाता है तो स्थिति स्पष्ट होगी. इसमें अमेरिका के कम्युनिकेशन असिस्टेंस फॉर इंफोर्समेंट लॉ, 1994 की तर्ज पर कानून बनाने पर विचार हो रहा है.

भारतीय परंपरा में भी निजता का हमेशा सम्मान किया गया है. प्राचीन भारतीय कानून निमार्ताओं ने कहा, ‘सर्वे स्वे स्वे गृहे राजा’; यानी हर आदमी अपने घर में राजा होता है. भारतीय शास्त्रीय साहित्य एवं महाकाव्यों ने इसे केंद्र में रखते हुए निजता के कानून की व्याख्या की. धर्म की रक्षा करना राजा की नैतिक जिम्मेवारी थी और इसी के तहत उसे नागरिकों की निजता की रक्षा करनी होती थी. कौटिल्य ने भी अपने ‘अर्थशास्त्र’ में राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे की समस्या पर विचार करते हुए जासूस नियुक्त करने का सुझाव तो दिया, परंतु उसे छिप कर सुनने का अधिकार नहीं दिया. उसने शासकीय जासूसों को सलाह दी कि वे लोगों की भीड़ में घुस कर राज्य के मसलों पर बहस छेड़ दें.

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