राजनीतिक विश्लेषक आगामी आम चुनाव को देश की 125 साल पुरानी पार्टी- कांग्रेस का सबसे कठिन इम्तिहान बता रहे हैं. हाल में चार प्रमुख राज्यों में मिली करारी शिकस्त के बाद यह उम्मीद जतायी जा रही थी कि कांग्रेस पार्टी संगठनात्मक स्तर पर बड़े बदलाव कर सकती है. इस ‘बदलाव’ का पहला संकेत मंगलवार को तब मिला जब नयी दिल्ली में पार्टी की एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बैठक में नेहरू-गांधी परिवार की चश्मो-चराग नंबर दो प्रियंका वाड्रा ने शिरकत की.
माना जा रहा है कि अब तक राजनीति की देहरी पर थोड़ी ङिाझक के साथ खड़ी रहीं प्रियंका वाड्रा आनेवाले समय में कांग्रेस में अहम भूमिका निभा सकती हैं. क्या यही वह ‘बदलाव’ है, जिसकी उम्मीद राजनीतिक विेषकों को थी? शायद नहीं. गौर से देखें, तो यह कदम कांग्रेस की हदों को सामने ला रहा है. नेहरू-गांधी परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता जिस तरह से बनी हुई है, वह यह बताने के लिए काफी है कि पार्टी के राजनीतिक दर्शन में संगठन और जन-सरोकारी मसलों की तरफदारी से ज्यादा एक परिवार के करिश्मे का महत्व आज भी यथावत बना हुआ है.
ऐसा करते हुए कांग्रेस उदारीकरण के बाद भारत में उभरे शक्तिशाली युवा वर्ग की नयी आकांक्षाओं से आंखें चुरा रही है. यह नया युवा वर्ग विभिन्न क्षेत्रों में अपनी हिस्सेदारी चाहता है. यह स्वाभाविक ही है कि व्यापार व सिनेमा जैसे क्षेत्रों में अपनी पहचान कायम करने के बाद यह वर्ग अब देश की राजनीति में भी अपनी भूमिका तलाश रहा है. लेकिन, कांग्रेस बदलाव की इन आहटों से बेखबर दिखती है और राजनीति को घिसे-पिटे फॉमरूले से ही चलाना चाहती है. यह फॉमरूला है- गांधी परिवार के करिश्मे की बदौलत चुनावी वैतरणी पार करने का.
यूपीए-2 का शासनकाल कांग्रेस में नयी पीढ़ी तैयार करने की उर्वर जमीन साबित हो सकता था, लेकिन अगले आम चुनाव से बमुश्किल से चार महीने पहले कांग्रेस का वह युवा नेतृत्व परिदृश्य से गायब है और पार्टी फिर नेहरू-गांधी परिवार के भरोसे है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व स्तर पर प्रियंका का औचक आगमन ‘नया’ सोच पाने की कांग्रेस की अक्षमता को तो बयान कर ही रहा है, राजनीतिक नेतृत्व के विकास के लिहाज से इसकी मिट्टी के अनुपजाऊ हो जाने की कथा भी कह रहा है.