अनुज कुमार सिन्हा
वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर
पिछले दिनों केरल में एक ऐसी बड़ी घटना घटी है, जिसने मजूबर कर दिया है कि आस्था-परंपरा के नाम पर जिस प्रकार के आयाेजन हाे रहे हैं, उन पर नये सिरे से विचार किये जायें. यह घटना है केरल के पुत्तिंगल देवी मंदिर में आतिशबाजी के दाैरान साै से ज्यादा लाेगाें की जान जाने की. मंदिर है ताे पूजा-अर्चना हाेगी ही. देवी के दर्शन को लाेग आयेंगे ही.
वर्षों से पुत्तिंगल देवी मंदिर के पास देर रात आतिशबाजी की परंपरा चलती चली आ रही है. इस परंपरा को लेकर लाेगाें की आस्था इतनी गहरी है कि परिवार के साथ लाेग इस आतिशबाजी काे देखने आते हैं.
यह जानते हुए भी, कि यदि आतिशबाजी में थाेड़ी-सी भी चूक हुई, ताे जान गयी, लाेग वहां आते रहे हैं. इस बार भी वही उत्साह था. वही आतिशबाजी चल रही थी. पटाखाें में आग लग गयी. साै से ज्यादा लाेग मारे गये. अब मंदिर समिति के लाेगाें पर कानूनी कार्रवाई हाे रही है.
यह सिर्फ केरल की बात नहीं है. पूरे देश में अनेक ऐसे धार्मिक स्थल हैं, जहां आस्था-परंपरा के नाम पर बड़े-बड़े आयाेजन हाेते हैं. होने भी चाहिए, लेकिन इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि आयाेजन इतने बेहतर तरीके से हाें, उनका प्रबंधन इतना अच्छा हाे कि काेई भगदड़ न मचे, किसी की जान न जाये. वर्षों पहले जब कभी इस परंपरा की शुरुआत हुई हाेगी, तब न ताे इतनी आबादी रही हाेगी आैर न ही ऐसी भीड़ जमा हाेती रही हाेगी.
अगर तबकी आतिशबाजी की ही बात करें, ताे दाे-चार राकेट, पटाखे छाेड़े जाते रहे हाेंगे. लेकिन समय बीता आैर यह आयाेजन बड़ा हाेता गया. भक्त बढ़ते गये, पैसे आने लगे. आयाेजन का स्वरूप बदलता गया. भव्य आयाेजन की हाेड़ में खतरनाक पटाखाें का इस्तेमाल किया जाने लगा. भक्ताें काे भी अच्छा लगा आैर आयाेजकाें काे भी. लेकिन दुख हो रहा है कि इस आयाेजन ने साै से ज्यादा लाेगाें की जान ले ली.
यह सही है कि आस्था पर आप अंकुश नहीं लगा सकते. देश में धार्मिक आजादी की स्वंतत्रता है आैर संविधान ने हर किसी काे यह आजादी दी है. आस्था के साथ खिलवाड़ काेई कर भी नहीं सकता. लेकिन इस आजादी की लाेगाें काे क्या कीमत चुकानी पड़ती है, इसके आकलन का वक्त आ गया है.
यह आकलन काेई बाहर का व्यक्ति न करे, सरकार न करे, बल्कि खुद आयाेजन समिति करे कि क्या जायज है या क्या नहीं. अायाेजन किस तरह से संपन्न हाे, ताकि परंपरा भी बनी रहे, आस्था पर चाेट भी न हाे आैर आयाेजन खतरनाक या जानलेवा न बनने पाये, और लाेगाें का जान न जाये.
यह बात इसलिए हाे रही है, क्याेंकि देश में बड़े-बड़े धार्मिक आयाेजन हाेते रहे हैं. घटनाएं भी घटती रही हैं. ऐसी घटनाआें पर अंकुश के लिए प्रयास भी हाेते रहे हैं. दुनिया का सबसे बड़ा आयाेजन ताे कुंभ मेले का ही हाेता है, जहां कराेड़ाें लाेग एक साथ डुबकियां लगाते हैं.
आम ताैर पर आयाेजन का प्रबंध इतना बेहतर हाेता है कि काेई बड़े हादसे नहीं हाेते. इसके बावजूद कभी भगदड़ मच जाती है, ताे कभी पुल टूट जाता है. कुंभ के प्रबंधन पर दुनिया से स्कॉलर रिसर्च करने आते हैं, ताकि अध्ययन कर सकें कि इसकी खासियत क्या है. देवघर में सावन में एक माह तक बड़ा आयाेजन हाेता है आैर इसमें हर दिन लाखाें लाेग आते हैं. सारा कुछ निर्भर करता है कि आयाेजकाें की तैयारी कैसी है. जान से बढ़ कर कुछ नहीं है. इस बात का ख्याल रखना चाहिए.
हमारे देश में आस्था के नाम पर कहीं हाथियाें की दाैड़ हाेती है, ताे कहीं बैल दाैड़ की प्रतियाेगिता होती है. थाेड़ी सी लापरवाही लाेगाें की जान ले सकती है. मंदिराें में पट खुलते ही दर्शन के लिए भक्त जब दाैड़ते हैं, ताे काैन कहां दब जा रहा है, उन्हें इसका पता नहीं चलता.
अब समय आ गया है, जब आयाेजक खुले मन से साेचें आैर देखें कि समय के साथ-साथ क्या बदलाव हाेना चाहिए. अगर आतिशबाजी जानलेवा है, ताे यह बंद हाेनी चाहिए. हां, अगर आस्था-परंपरा आड़े आती है, ताे एक छाेटा पटाखा फाेड़ कर इसकी भरपाई की जा सकती है.
लेकिन यह तभी संभव है, जब लाेग तैयार हाें. लाेगाें काे अपनी मानसिकता बदलनी हाेगी. यहां ध्यान देना हाेगा कि थाेड़ा बदलाव कर या राेक लगा कर अगर घटनाआें पर अंकुश लग सकता है, लाेगाें की जान बच सकती है, ताे ऐसे बदलाव से हर्ज क्या है. अब देश के तमाम ऐसे बड़े आयाेजनाें के प्रबंधन काे आैर मजबूत कर, उसमें बदलाव (अगर जरूरत पड़ी ताे) का वक्त आ गया है.