।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
अर्थशास्त्री
कई अध्ययनों के संकेत मिलते हैं कि जिन देशों में घरेलू देशों की गवर्नेस की संस्थाएं पुख्ता हैं, उन देशों में विदेशी निवेशों का सुप्रभाव देखा जाता है. इसके विपरीत यदि घरेलू गवर्नेस कमजोर है, तो विदेशी निवेश का प्रभाव नकारात्मक हो जाता है. यूपीए सरकार का विदेशी निवेश का मोह टूट नहीं रहा है. देश की अर्थव्यवस्था ठंडी पड़ी हुई है. पहला कारण भ्रष्टाचार है. इससे उद्यमियों की लागत ज्यादा आती है और सस्ते आयातित माल के आगे वे टिक नहीं पाते हैं. दूसरा कारण बुनियादी संरचना में निवेश का अभाव है.
सरकारी राजस्व का उपयोग मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के माध्यम से गरीब को राहत पहुंचाने के लिए किया जा रहा है. हाइवे, भूमिगत जल के भरण तथा बिजली के ट्रांसफार्मरों में निवेश में कटौती की गयी है. तीसरा कारण ऊंची ब्याज दर है. खर्चो को पोषित करने के लिए सरकार भारी मात्र में बाजार से ऋण ले रही है जिसके कारण ब्याज दर ऊंची है.
इन समस्याओं को हल करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. बल्कि इन्हें परदे के पीछे छुपा कर विदेशी निवेश हासिल करके ग्रोथ हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है, जैसे उबड़-खाबड़ मैदान पर क्रिकेट न खेल सकने का हल नया बैट खरीद कर खोजा जाये.
इस दिशा में वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने हाल में कहा ‘सरकार द्वारा एफडीआइ नीति को सरल बना कर प्रयास किया जा रहा है कि भारत विदेशी निवेश आकर्षित करने का शीर्ष केंद्र बना रहे.’ सरकार ने खुदरा में टेस्का के निवेश प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. लेकिन दूसरी तरफ स्टील बनानेवाली पोस्को तथा आरसेलर मित्तल कंपनियों ने भारत में निवेश करने के अपने प्लान रद्द कर दिये हैं.
इसके बाद तेल उत्पादन करनेवाली बीएचपी बिल्लीटन ने तेल की खोज करने के अपने प्लान रद्द कर दिये हैं. रिटेल कंपनी वालमार्ट भी भारत में निवेश करने को हिचकिचा रही है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस हिचकिचाहट से भयभीत होने की जरूरत नहीं है. संभव है कि यह हमारे लिए लाभप्रद हो.
कोलकाता यूनिवर्सिटी की सर्वप्रिया राय ने पाया कि भारत में विदेशी निवेश और आर्थिक विकास दर साथ-साथ चलते हैं, परंतु उन्होंने यह भी पाया कि आर्थिक विकास तीव्र होने से विदेशी निवेश ज्यादा मात्र में आता है. यानी आर्थिक विकास का लाभ उठाने के लिए विदेशी कंपनियां प्रवेश करती हैं. विदेशी कंपनियों के आने से आर्थिक विकास दर नहीं बढ़ती है. कारक घरेलू आर्थिक विकास है.
विदेशी निवेश उसका परिणाम है. दूसरे देशों में भी विदेशी निवेश और आर्थिक विकास का परस्पर एक-दूसरे के संबंध के ठोस परिणाम नहीं मिलते हैं. विदेशी निवेश के दूसरे कथित सुप्रभावों के विषय में भी मैं आश्वस्त नहीं हूं. पहला सुप्रभाव तकनीक का बताया जाता है. नि:संदेह विदेशी कंपनियों के आने से भारतीय माल की क्वालिटी में इंप्रूवमेंट हुआ है, परंतु ऐसा सुधार घरेलू प्रतिस्पर्धा से भी आ सकता था.
विदेशी निवेश का पूंजी पर प्रभाव भी संदिग्ध है. जानकार बताते हैं कि भारत में आ रहे विदेशी निवेश का एक बड़ा हिस्सा घरेलू पूंजी के राउंड-ट्रिपिंग के कारण है. देश से कालाधन बाहर भेज कर उसे विदेशी निवेश के रूप में देश में वापस लाया जा रहा है. स्विस बैंकों में भारतीयों की जमा राशि के विशाल होने के संकेत उपलब्ध हैं.
जितनी मात्र में हमें विदेशी पूंजी मिल रही है उससे ज्यादा मात्र में हमारी पूंजी बाहर जा रही है. अत: अपनी पूंजी की जरूरत को घरेलू पूंजी के पलायन को रोक कर एवं स्विस बैंकों से पूंजी को वापस लाकर पूरा किया जा सकता है.
पास्को, आरसेलर मित्तल तथा वॉलमार्ट का पलायन घरेलू जनता के विरोध के कारण हुआ है. इन बड़ी कंपनियों द्वारा लागू किये जानेवाला पूंजी-सघन उत्पादन देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है. अमीर देशों में पूंजी अधिक और श्रमिकों की संख्या कम है. उनके लिए वॉलमार्ट की कंप्यूटरीकृत वितरण प्रणाली सुलभ है.
भारत में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न है. हमारे नागरिकों के लिए खेती और नुक्कड़ की किराने की दुकाने जीवनदायिनी हैं. बड़ी कंपनियों के प्रवेश से बेदखल हुए लोगों के पास जीविकोपाजर्न का दूसरा विकल्प नहीं रहता है. वालमार्ट के द्वारा 30 प्रतिशत माल की खरीद देश में करने को स्वीकार नहीं करना बताता है कि इस कंपनी का घरेलू उद्यमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
भ्रष्टाचार, बुनियादी संरचना की खस्ताहाल हालत तथा ऊंचे ब्याज दरों की समस्याओं का सामना करने के स्थान पर विदेशी निवेश के जरिये सरकार कुशासन पर परदा डालने का प्रयास कर रही है. अपने घर को ठीक करने के अलावा विकास का दूसरा कोई उपाय नहीं है. कई अध्ययनों के संकेत मिलते हैं कि जिन देशों में घरेलू देशों की गवर्नेस की संस्थाएं पुख्ता हैं, उन देशों में विदेशी निवेशों का सुप्रभाव देखा जाता है.
इसके विपरीत यदि घरेलू गवर्नेस कमजोर है, तो विदेशी निवेश का प्रभाव नकारात्मक हो जाता है. ऐसे में भी हमें विदेशी निवेश की जरूरत नहीं है. अत: बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पलायन से सबक लेते हुए हमें घरेलू समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए. टेस्को जैसे विदेशी निवेश की दो चार स्वीकृतियों को देने से संतोष नहीं करना चाहिए.