आजादी के बाद देश में पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात किया गया. सामाजिक कल्याण की योजनाएं बनायी गयीं. लेकिन छह दशक बाद भी इनके अपेक्षित परिणाम हमें दिखाई नहीं देते. इसके कई कारण गिनाये जा सकते हैं, परंतु बहुत से लोग मानते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण लचर नौकरशाही है, क्योंकि सरकार के फैसलों को जमीन पर उतारने की जिम्मेवारी उसी की होती है.
लेकिन क्या इस नाकामी का ठीकरा अकेले नौकरशाही पर फोड़ा जा सकता है? देश में नौकरशाही अपने राजनीतिक आकाओं के अधीन है और यह किसी से छिपा नहीं है राजनीतिक नेतृत्व परफॉरमेंस की जगह ‘वफादारी’ को तरजीह दे रहा है. इस ‘वफादारी’ को सुनिश्चित करने का तरीका मनमाना तबादला है. इसमें ईमानदारी से काम करनेवाले आधिकारियों को पुरस्कार की जगह ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ मिलती है. आंकड़े भी इसकी तसदीक करते हैं. एक प्रमुख अंगरेजी दैनिक में छपी रिपोर्ट के मुताबिक देश के दो तिहाई नौकरशाहों का औसत कार्यकाल 18 महीने या उससे कम है.
10 साल की सेवा दे चुके 2,139 नौकरशाहों के एग्जीक्यूटिव रिकॉर्ड शीट्स (इआर) के विेषण के आधार तैयार रिपोर्ट के मुताबिक 14 प्रतिशत अधिकारियों का औसत कार्यकाल एक वर्ष से भी कम है. सिर्फ आठ प्रतिशत नौकरशाह ऐसे हैं, जिनका औसत कार्यकाल दो साल से ज्यादा बैठता है. जाहिर है, बार-बार के तबादलों ने नौकरशाही को अस्थिर किया है, जिससे गवर्नेस का स्तर प्रभावित हुआ है. इसने नौकरशाही के मनोबल को तो गिराया ही है, उस पर आम जनता के यकीन को भी कम किया है. इसका संभवत: सबसे नकारात्मक असर महान लक्ष्यों के साथ चलाये जानेवाले सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों की सफलता पर पड़ता है.
यूपीए-1 कार्यकाल में बने दूसरे प्रशासनिक आयोग ने नौकरशाहों को निश्चित कार्यकाल दिये जाने की सिफारिश की थी. सुप्रीम कोर्ट भी नौकरशाहों के निश्चित कार्यकाल, उनके तबादले और पदोन्नति के लिए स्वतंत्र निकाय के गठन का दिशा-निर्देश दे चुका है. ऐसे समय में जब गवर्नेस का सवाल देश में प्रमुखता प्राप्त कर रहा है, क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि इस दिशा में ठोस पहल की जायेगी और नौकरशाही की निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित की जायेगी!