हमारे देश में कर्तव्य की वेदी पर प्राण न्योछावर करना एक मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है. कोई इस आदर्श स्थिति को प्राप्त करे, तो उसकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति सरकार जिस सीमा तक सम्मान प्रकट करती है उसी से तय होता है कि ऐसी कर्तव्यपरायणता उसकी प्राथमिकताओं में कहां है. अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में बनी दिल्ली सरकार ने आबकारी विभाग के एक कर्तव्यपरायण सिपाही विनोद की शहादत को सलाम करते हुए उसके परिजनों को एक करोड़ रुपया मुआवजा देने की घोषणा की है.
आबकारी विभाग का सिपाही विनोद शराब माफिया से टक्कर लेते हुए मारा गया. उसकी मृत्यु की खबर एक रुटीन खबर बन कर रह जाती, परंतु आप सरकार द्वारा एक करोड़ रुपये के मुआवजे की घोषणा और इस कर्तव्यपरायण सिपाही को शहीद कह कर पुकारना एक बड़ा समाचार बन कर उभरा और जनभावी लोगों का ध्यान खींच रहा है. तुलना करें अब से साल भर पहले घटी ऐसी ही एक घटना से. तब दिल्ली में गैंगरेप के खिलाफ जनाक्रोश तनिक उग्र हो चला था. प्रदर्शनकारी भीड़ की निगरानी की ड्यूटी निभाते हुए सुभाष तोमर की हृदयाघात से मृत्यु हुई.
एक तो दिल्ली सरकार ने इस घटना का उपयोग प्रदर्शनकारियों को आक्रामक और अराजक बताने में किया, दूसरे देश के गृहमंत्रलय ने महज 10 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की, जबकि दिल्ली गैंगरेप से जुड़ी प्रत्येक खबर को देश दम साधे देख रहा था. घोषणा हुई कि दिल्ली पुलिस का प्रत्येक कर्मचारी अपने एक दिन का वेतन सुभाष के परिवार को सहायतार्थ देगा, पर बाद में दिल्ली पुलिस के कमिश्नर नीरज कुमार बात से पलट गये. तर्क दिया गया कि रकम 8-10 करोड़ होगी तो क्यों न इसे कर्तव्य की वेदी पर न्योछावर अन्य सिपाहियों के परिवारों में बांट दिया जाये?
यानी दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार तब एक सिपाही की जान की कीमत लाख में तो आंक रही थी, करोड़ में नहीं. आप ने कर्तव्य की वेदी पर न्योछावर सिपाही के लिए एक करोड़ रुपये के मुआवजे का ऐलान कर कर्तव्यपरायणता को अपनी शीर्ष प्राथमिकता तो साबित किया ही है, प्रतीकात्मक रूप से यह भी जताया है कि अधिकारी हो या कर्मचारी, कर्तव्यभावना के सम्मान के मामले में उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाना चाहिए.