बिहार-झारखंड में लोकसभा चुनाव से पहले दोनों राज्यों में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और झारखंड विकास मोरचा प्रजातांत्रिक (जेवीएम) ने नये गंठबंधन का एलान कर दिया है. यह एक स्वागतयोग्य कदम है. मध्यमार्गी राजनीति के लिए इसकी जरूरत है. जो लोग कांग्रेस और भाजपा के विकल्प के रूप में एक ऐसा मोरचा चाहते हैं, जो विश्वसनीय हो और गवर्नेस के मामले में जिसका ट्रैक रिकार्ड साफ-सुथरा हो, यह गंठबंधन वैसे लोगों की उम्मीद के अनुरूप है.
तीसरे मोरचे के नाम पर ऐसे अनेक दल सामने आ रहे हैं, जिनसे कोई उम्मीद नजर नहीं आती है. ऐसा कोई भी नहीं दिखता, जिसका गवर्नेस के मामले में अच्छा ट्रैक रिकार्ड हो. वहीं नीतीश कुमार ने लाइलाज समङो जानेवाले बिहार को प्रशासन के मामले में ऐसा राज्य बनाया, जिसकी प्रशंसा दुनिया भर में हुई. बाबूलाल मरांडी के मुख्यमंत्रित्व काल में जिस तरह झारखंड की सड़कों की स्थिति बेहतर हुई, उससे लोगों में काफी उम्मीदें बंधने लगी थीं. दरअसल, राजनीतिक समीकरण बनने-बनाने के दौर में सबसे अहम बात यह है कि दोनों राज्यों में भाजपा को संभवत: अकेले ही चुनाव मैदान में उतरना होगा.
बिहार में झाविमो और जदयू का गंठबंधन झारखंड के दृष्टिकोण से खास है. झाविमो का बिहार में कुछ नहीं है, लेकिन जदयू का झारखंड में सीमित ही सही, पर असर है. नये चुनावी समीकरण बना कर नीतीश कुमार भी यह बताना चाहते हैं कि गैर कांग्रेस-गैर भाजपा विकल्प के सोच को जमीन पर उतारा जा सकता है. आदिवासी होने के बावजूद बाबूलाल मरांडी की पहचान आदिवासी नेता के तौर पर नहीं रही है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दीक्षित और शिक्षित होने के बावजूद उन्होंने भाजपा से अलग होकर झारखंड में एक नयी राजनीतिक डगर बनाने की कोशिश की है.
उनकी पार्टी सड़क पर जनता के मुद्दों के साथ दिखी, तो विधानसभा में भी बहस के दौरान अपनी दमदार उपस्थिति दिखाने की कोशिश करती रही है. इसका लाभ नीतीश कुमार को बिहार में मिल सकेगा. बिहार में भाजपा से रूठे कार्यकर्ताओं या नेताओं को भी जोड़ने का काम मरांडी कर सकते हैं. बिहार और झारखंड में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो राजनीति में भाजपा और कांग्रेस से अलग एक दमदार मोरचे की हसरत रखते हैं.