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भ्रष्टाचार पर यह निर्लज्जता!

।। विश्वनाथ सचदेव।। (वरिष्ठ पत्रकार) बड़े नेताओं और बड़े अफसरोंवाली हाउसिंग सोसायटी, जिसे पता नहीं क्या सोच कर ‘आदर्श’ नाम दिया गया था, के कथित घोटाले की जांच के लिए नियुक्त दो सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट को आखिरकार महाराष्ट्र विधानसभा में पेश कर दिया गया. राज्य विधानसभा के शरदकालीन अधिवेशन के अंतिम दिन, शायद यह […]

।। विश्वनाथ सचदेव।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

बड़े नेताओं और बड़े अफसरोंवाली हाउसिंग सोसायटी, जिसे पता नहीं क्या सोच कर ‘आदर्श’ नाम दिया गया था, के कथित घोटाले की जांच के लिए नियुक्त दो सदस्यीय आयोग की रिपोर्ट को आखिरकार महाराष्ट्र विधानसभा में पेश कर दिया गया. राज्य विधानसभा के शरदकालीन अधिवेशन के अंतिम दिन, शायद यह अंतिम कार्य था, जो सदन में हुआ. सरकार ने ऐसा करके यह सुनिश्चित कर दिया था कि सदन इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट पर चर्चा न कर सके. मतलब यह कि न्यायालय के आदेशानुसार रिपोर्ट सदन में प्रस्तुत करने का काम कर दिया गया. आयोग की रिपोर्ट के साथ ही उस पर की गयी कार्रवाई की जानकारी भी सरकार ने दे दी है. चार पंक्तियों की कार्रवाई की इस रिपोर्ट में मात्र इतना कहा गया है कि ‘आयोग से जिन तेरह मुद्दों पर जांच के लिए कहा गया था, उनमें से दो के बारे में आयोग की राय को सरकार ने स्वीकार कर लिया है और शेष सारी रिपोर्ट को खारिज कर दिया है.’

स्वीकार की गयी दो बातें हैं- आदर्श सोसायटीवाली जमीन केंद्र की नहीं, राज्य सरकार की है और यह आदर्श प्रोजेक्ट कारगिल के शहीदों की विधवाओं को आश्रय देने के लिए नहीं था. आयोग की जो बातें सरकार को स्वीकार नहीं हैं, उनमें शामिल हैं- पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने दो संबंधियों को फ्लैट दिये जाने के बदले में इस सोसायटी को अनुमति दी थी. तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों ने आदर्श को राजनीतिक संरक्षण दिया था. सोसायटी के 102 सदस्यों में 25 सदस्य फ्लैट पाने के अधिकारी नहीं थे. 22 अन्य फ्लैट बेनामी सौदे में लिये गये हैं. बारह सरकारी अधिकारियों ने इस प्रकरण में सेवा-नियमों का उल्लंघन किया है. यह और ऐसी सब बातें सरकार को मान्य नहीं हैं. मजे की बात यह है कि अपने इस निर्णय का कोई कारण बताना भी सरकार ने जरूरी नहीं समझा है. ज्ञातव्य है कि उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश और एक उच्च पदस्थ पूर्व सरकारी अफसरवाले इस आयोग का गठन करते समय सरकार ने दूध का दूध और पानी का पानी होने का आश्वासन दिया था.

आदर्श मामले से जुड़े सभी राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों को गलत काम करने की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त मान लिया गया है. ज्ञातव्य यह भी है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर मुकदमा चलाने के सीबीआइ के आवेदन को भी ठुकरा दिया है. राज्य सरकार का कहना है कि राज्यपाल ने यह निर्णय सरकार की सलाह पर नहीं, अपने विवेक से लिया है. मतलब यह कि ‘आदर्श प्रकरण’ आदर्श घोटाला यदि था तो सिर्फ इस माने में कि यह घोटाला था ही नहीं! देश की जनता को मान लेना चाहिए कि सोसायटी का गठन कारगिल के शहीदों के परिवारों के लिए नहीं किया गया था. इस मामले में राजनेताओं और उनके संबंधियों को विधिवत तरीके से ही फ्लैट मिले थे. संबंधित अधिकारियों ने आवश्यक अनुमति देने के बदले अपने या रिश्तेदारों के लिए कोई गलत फायदा नहीं लिया. ऐसे आरोप लगानेवाले कुछ निहित स्वार्थो के कारण ऐसा कर रहे हैं. मान तो जनता को यह भी लेना चाहिए कि जांच आयोग ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे भी गलत हैं.

यह सही है कि किसी भी जांच आयोग की रिपोर्ट को स्वीकारने-अस्वीकारने का अधिकार सरकार को होता है, लेकिन क्या यह सही नहीं है कि अपने निर्णय का औचित्य बताने का कर्तव्य भी सरकार का होना चाहिए? महाराष्ट्र सरकार ने ऐसा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं समझी. इसे सरकार का स्वार्थ माना जाये अथवा बेशर्मी? कठोर शब्द हैं ये दोनों, लेकिन मामला ही कुछ ऐसा है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ रहा है. यह मात्र संयोग हो सकता है कि भ्रष्टाचार के आरोप की जांच करनेवाले किसी आयोग की सिफारिशों को एक राज्य सरकार उस समय अस्वीकार कर रही है जबकि केंद्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल जैसे ‘सशक्त व्यवस्था’ को लागू किये जाने का कानून बन रहा है, लेकिन राजनेताओं और अधिकारियों के भ्रष्टाचार को उजागर करने का यह मामला अपने ढंग का अकेला नहीं है. यह विडंबना ही है कि एक ओर तो देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-आंदोलन की लहर उठ रही है और दूसरी ओर सरकारें अपने लोगों को बचाने के लिए भ्रष्टाचार के प्रकरणों को निर्लज्जता से अनदेखा कर रही हैं.

मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि एक ईमानदार राजनेता की रही है. इसलिए जब पदग्रहण के दो माह के भीतर ही उन्होंने प्रकरण की जांच के लिए दो सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया तो उम्मीद जगी थी कि सरकार उचित के पक्ष में कुछ करना चाहती है लेकिन लगभग ढाई साल के बाद आयोग ने जब 670 पृष्ठ की अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो उसे सार्वजनिक करने में महाराष्ट्र सरकार ने आठ महीने लग दिये. आठ महीने बाद गहन अध्ययन के बाद सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि जांच आयोग के ये सब निष्कर्ष गलत हैं!

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