डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
पिछले दिनों दिल्ली में आर्ट ऑफ लिविंग यानी जीने की कला की खूब धमक रही. देश-विदेश से पैसे वाले लोग जीने की कला सीखने आये. पैसे वाले लोगों की यह एक अनन्य विशेषता है कि वे पहले जीने की कला सीखते हैं, फिर जीना शुरू करते हैं.बाकी लोग इतने शऊर वाले नहीं होते. वे बिना सीखे ही जी लेते हैं. कैसे जीते हैं, भगवान जाने.
उन्हें जीने की ऐसी आफत-सी पड़ी रहती है कि पैदा होते ही आव देखते न ताव, फौरन जीना शुरू कर देते हैं. आव शायद देख भी लेते हों, ताव बिलकुल नहीं देखते. तभी तो जिंदगी में कभी ताव नहीं खाते. अमीर लोग ऐसा नहीं करते. वे आव भले ही न देखें, पर ताव जरूर देखते हैं, तभी तो जिंदगी भर मूंछों पर ताव देते दिखते हैं.
पैदा होने के बाद वे पहला काम यह करते हैं कि कोई जीना सिखानेवाला ढूंढ़ते हैं और उससे जीना सीखते हैं. आखिर जिंदगी कोई बार-बार तो मिलती नहीं कि उसे ऐसे ही बिना जीना सीखे जीकर गंवा दिया जाये.
हीरा जनम अमोल है कौड़ी बदले जाये. इस हीरे जैसे अनमोल जीवन को जीने की कला सीखने के लिए रुपया-पैसा, धन-दौलत जो भी देना पड़े, कौड़ी समझ कर निर्ममतापूर्वक दे देना चाहिए. इस सिद्धांत का अनुसरण करते हुए अमीर लोग दूसरी जगहों से निर्ममतापूर्वक कमाते हैं और जीने की कला सिखानेवालों को निर्ममतापूर्वक ही दे देते हैं.
हालांकि, पैंतीस साल पहले अमीरों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी. पैंतीस साल पहले तक उन्हें भी गरीबों की तरह ही बिना जीने की कला सीखे ही जीना पड़ता था. इससे स्वभावत: अमीर बहुत बेचैन रहते थे.
उन्हें यह बात बहुत चुभती थी कि अगर उन्हें भी गरीबों की तरह ही जीना पड़े, तो उनके अमीर होने का फायदा ही क्या? रह-रह कर वे ईश्वर से गुहार लगा बैठते कि हे ईश्वर, अगर तुझे हममें और गरीबों में कोई भेद नहीं रखना था, तो हमें अमीर बनाया ही क्यों? तब कहते हैं कि ईश्वर को उन पर दया आयी, मतलब जिसे भी दया आयी उसे ही उन्होंने ईश्वर समझा, और उसने भारतवर्ष में जीने की कला यानी आर्ट ऑफ लिविंग सिखानेवाली संस्था स्थापित करवायी. अमीरों ने चैन की सांस ली और आर्ट ऑफ लिविंग सीख कर सही तरीके से यानी गरीबों से भिन्न तरीके से जीने लगे.
और जिन्हें आर्ट ऑफ लिविंग यानी जीने की कला आ जाती है, उन्हें आर्ट ऑफ लीविंग यानी जाने की कला अपने आप आ जाती है. जाने की कला मतलब देश छोड़ कर जाने की कला. असल में अमीरों के जीने की कला में दूसरों का जीना हराम करने की कला निहित होती है.
इस प्रयोजन के लिए वे ढेर सारा चूना इकठ्ठा करके रखते हैं और जीने की कला का इस्तेमाल करते-करते जब वे देश, समाज, अर्थव्यवस्था सबको चूना लगा लेते हैं, तब जाने की कला का इस्तेमाल कर देश छोड़ कर चले जाते हैं. इस कला की बदौलत पुलिस, सीबीआइ, सरकार सब पर ऐसा सम्मोहन छा जाता है कि कोई उन्हें जाते देख कर भी नहीं देख पाता. उनके जाने के बाद ही सबको होश आता है और वे जान पाते हैं कि वे तो चले भी गये.
अभी हाल ही में मेरा एक ऐसे बैंक में जाना हुआ, जो देश छोड़ कर चले गये ऐसे ही एक कलाकार के हाथों हजारों करोड़ रुपये का कर्ज डुबवाये बैठा था. बैंक की इमारत अचानक सफेद रंग से पुती देख मैंने मैनेजर साहब से पूछा, तो उसने बताया कि असल में वह कलाकार बैंक को चूना लगा कर भाग गया है और यह उसी का रंग है.