12.5 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

बेटी को बेटी ही रहने दें

कविता विकास स्वतंत्र लेखिका घटना पच्चीस साल पुरानी है. एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की प्राचार्या के समक्ष एक पिता अपनी बेटी के एडमिशन के लिए चिरौरी कर रहे थे. प्राचार्या ने कहा कि मेरिट लिस्ट में जिनका नाम नहीं है, उनका दाखिला नहीं होगा. पिता ने कहा कि अपनी बेटी को वह बेटों जैसा पालते […]

कविता विकास
स्वतंत्र लेखिका
घटना पच्चीस साल पुरानी है. एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की प्राचार्या के समक्ष एक पिता अपनी बेटी के एडमिशन के लिए चिरौरी कर रहे थे. प्राचार्या ने कहा कि मेरिट लिस्ट में जिनका नाम नहीं है, उनका दाखिला नहीं होगा. पिता ने कहा कि अपनी बेटी को वह बेटों जैसा पालते हैं.
प्राचार्या ने रोष प्रकट करते हुए कहा, ‘क्यों, बेटी को बेटी जैसा क्यों नहीं पालते?’ तब मैं इस बात का अर्थ नहीं समझी थी. अब जब दुनियादारी की समझ हो रही है, तब इसका अर्थ जान पायी हूं. बेटी और बेटा अलग-अलग स्वभाव के दायरे में वयस्क होते हैं. बेटियांे को पहले शारीरिक और बौद्धिक स्तर पर कमजोर भी माना जाता था. लड़के स्वभावतः उग्र, कठोर और बलवान माने जाते हैं. लेकिन अब बेटा-बेटी के बीच की महीन रेखा लुप्त हो रही है.
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था. 1975 से 1985 के दस वर्ष का समय महिलाओं के योगदान को संपूर्ण पहचान देने के लिए कार्यरत रहा. इन प्रयासों का आगाज विभिन्न नारी संगठनों और उनके रचनात्मक सहयोगों को विश्व पटल पर लाने हेतु अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, मदर्स डे, डॉक्टर्स डे आदि दिवस निश्चित किये गये.
आलोचक चाहे जो कहें, पर इतना तो सत्य है कि छोटे शहरों में आस-पास के गांव और कस्बों से चुन कर ऐसी प्रतिभाएं सामने आयी हैं, जिनकी उपलब्धियां प्रेरणास्रोत हैं. मसलन, एक ऐसी बैंक मैनेजर को लोगों ने जाना, जिसका दाहिना हाथ एक सड़क दुर्घटना में कंधे तक से कट गया. भीषण संघर्ष को झेलते हुए उसने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और बैंक मैनेजर बनी.
सरकारी नौकरी पर कार्यरत एक अन्य महिला ने अपने- आप को उस समय भी जोड़े रखा, जब शादी के मात्र एक हफ्ते बाद उसके ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, क्योंकि वह काली थीं. कानूनी दांव-पेंच के खर्चे वहन करने की क्षमता उसमें नहीं थी, इसलिए उसने चुपचाप अपनी पढ़ाई पूरी की और नौकरी पर लग गयी. ऐसी गुमनाम महिलाएं हिम्मत की मिसाल हैं और सम्माननीय भी.
बेटियों की परवरिश में अगर आपके ख्याल में उन्हें बेटों जैसा बनाने की बात आती है, तो फिर यह ‘जैसा’ शब्द ही उनके बीच के भेदभाव को दिखाता है और बेटों के सुपीरियर होने का संकेत मिलता है.
बेटी को उसकी कमजोरियों और खूबियों के साथ स्वीकारें और उसी के बीच उनका मार्ग प्रशस्त करें. यूनिसेफ ने ‘बाप वाली बात’ के नाम से एक वीडियो जारी कर पिता को बेटियों को संरक्षण देने के साथ उन्हें बोझ न समझ कर योग्य बनाने के प्रयास को शामिल किया है. पिता की सकारात्मक सोच के साथ बेटे भी बहू-बेटियों को सम्मान देना सीखेंगे.
इधर बीच समाज में अद्भुत सोच विकसित हुई है. लड़कियां जूडो-कराटे सीखने के साथ मूर्तियां बनाने में भी पारंगत होना चाहती हैं. पढ़ाई-लिखाई में तो लड़कों को पछाड़ ही रही हैं, प्रतियोगिताओं में भी सफल प्रतिभागी लड़कियां होती हैं. लड़कों को भाग लेने के लिए पुश-अप करना होता है, जबकि लड़कियां स्वयं आगे आना चाहती हैं.
यह परिवर्तन बेटियों के सुखद भविष्य की ओर इंगित करता है. जिन परिवारों ने एक बेटी के बाद ही संतान-सुख पर रोक लगा ली है, वे ज्यादा प्रोग्रेसिव विचारधारा वाले हैं. बेटियां आनेवाले दिनों में परिवार चलानेवाली मुख्य स्तंभ बनेंगी. बेटियों में परिवार को जोड़ कर रखनेवाली संवेदनशीलता होती है और अपने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करनेवाला संकल्प भी. बस उन्हें बेटों जैसा न पालें, बेटी के दायरे में रख कर ही उन्हें तेज और बलवती बनाएं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें