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सपने जगाती राजनीति का एक साल
पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार साल 2014 में विकास का मंत्र नरेंद्र मोदी ने फूंका, तो मई 2014 में पीएम बन गये. नौ महीने बाद स्वराज का मंत्र अरविंद केजरीवाल ने फूंका, तो फरवरी 2015 में दिल्ली के सीएम बन गये. नवंबर 2015 में सामाजिक न्याय का मंत्र लेकर नीतीश कुमार निकले, तो बिहार की […]
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
साल 2014 में विकास का मंत्र नरेंद्र मोदी ने फूंका, तो मई 2014 में पीएम बन गये. नौ महीने बाद स्वराज का मंत्र अरविंद केजरीवाल ने फूंका, तो फरवरी 2015 में दिल्ली के सीएम बन गये. नवंबर 2015 में सामाजिक न्याय का मंत्र लेकर नीतीश कुमार निकले, तो बिहार की गद्दी से उन्हें कोई उखाड़ ना सका. क्या देश के सामने तीनों मंत्र फेल हैं या फिर देश अब भी राजनीतिक विकल्प के लिए भटक रहा है? जाहिर है यह सवाल तब कहीं ज्यादा मौजू हो चला है, जब केजरीवाल की सत्ता के एक बरस पूरे हो रहे हैं.
आंदोलन से संसदीय राजनीति की चूलें हिलानेवाले केजरीवाल की राजनीतिक सत्ता के एक बरस पूरे होने पर कई सवाल उठेंगे. सवाल उठेगा एक बरस पहले इतिहास रचते हुए इतिहास बदलने की आहट समेटे वह जनादेश, ताज उछालने और तख्त गिराने का जनादेश, भारतीय राजनीति में विकल्प की आहट समेटे दिल्ली का जनादेश, जिनसे संकेत यही उभरा कि आनेवाले वक्त में जनसेवक सरोकार की सत्ता को महत्व देंगे, जिसमें सत्ता और सड़क के बीच वाकई जनपथ होगा, जिस पर चलते हुए आम आदमी आजादी की दूसरी लड़ाई को अंजाम देगा. पूंजी की सत्ता पर टिकी राजनीति बदलेगी. चुनाव लड़ने के तौर-तरीके बदलेंगे. ये सपने दिल्ली ने जगाये. इन सपनों को अन्ना हजारे ने पंख दिये, तो केजरीवाल ने जनादेश के आसरे सत्ता की उड़ान भरी. लेकिन, यह उड़ान बरस भर में ही कहां, कैसे और क्यों थम गयी?
बरस भर पहले का एहसास इंडिया की हथेली पर रेंगती राजनीति के तौर-तरीकों को बदलनेवाला था. और बरस भर बाद का एहसास दिल्ली में सिमटे भारत की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने की ही जद्दोजहद में जा फंसा. बरस भर पहले का सियासी पाठ पूंजी में कैद नागरिकों के अधिकारों को दिलाने का था. बरस भर बाद पूंजी ही सत्ता की जमीन बन गयी.
नारा एक साल बेमिसाल पर आ टिका, और बेमिसाल बनने की यात्रा में जिन फैसलों ने कंधा दिया, उनमें योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकाल कर अपने चेहरे को बदलना भी था. खुद भ्रष्ट ना होने की एवज में अपना ही वेतन बढ़ाना भी था. वोट बैंक को सत्ता तले महफूज कराना भी था और ईमानदार होने की अपनी परिभाषा तले गढ़ना भी था.
बरस भर में कहीं किसान, कहीं सिपाही, कहीं मुसलिम, तो कहीं दलित के मुद्दों की ताप तले खुद को खड़ा कर विकल्प की राजनीति को वोट बैंक तले दफन करने की सोच भी जागी. कभी ममता बनर्जी, तो कभी नीतीश कुमार का हाथ थामा, तो कभी लालू यादव से गले मिल कर हाथ थामने को झटका भी नहीं और परहेज से इनकार भी किया. यानी बरस भर बाद यानी आज आम आदमी पार्टी उसी कतार में खड़ी नजर आ रही है, जिसे बरस पूरा होने पर विज्ञापन बांटने हैं. इंटरव्यू से अपनी सफलता बतानी है. संपादकों को भोज देकर खुश करना है.
क्या 10 फरवरी, 2015 के जनादेश का फैसला अब सत्ता के रंग में रंग चुका है? या फिर केजरीवाल के कई निर्णयों ने उस संसदीय राजनीति को आईना दिखा दिया, जो आवारा पूंजी के आसरे ही देश को चलाना महत्वपूर्ण मानती रही.
दिल्ली में मोहल्ला क्लिनिक का निर्माण, सस्ते में पुल बना कर उससे बचे धन से मुफ्त दवाइयां बांटना, 700 लीटर पानी मुफ्त देना, 400 यूनिट बिजली पर आधा बिल लेना, न्यूनतम मजदूरी दोगुना करना, लेबर लाॅ के उल्लंघन की सजा बढ़ा कर पांच बरस जेल और 50 हजार तक करना, बीआरटी काॅरिडोर तोड़ देना, पर्यावरण के लिए ग्रीन टैक्स लेना, एडमिशन पारदर्शी बनाने के लिए स्कूल प्रबंधन के रैकेट को तोड़ना- पहले बरस के ये ऐसे निर्णय हैं, जो वेलफेयर स्टेट (कल्याणकारी राज्य) की सोच को पुनर्जीवित करते हैं.
यानी निजीकरण के दौर में जब यह सवाल बड़ा हो रहा है कि शिक्षा से लेकर अस्पताल तक और पीने के पानी से लेकर रोजगार तक तो निजी हाथों में है, तब कोई भी सरकार सिवाय पूंजी पर टिके सिस्टम को सुरक्षा देने या नीतिगत फैसलों से पूंजी लगानेवालों को मुनाफा कमाने के लिए माहौल तैयार कराने के अलावे और क्या कर सकती है? विकास शब्द भी पूंजी पर जा टिका है और दिल्ली में भी जब किसी योजना को लेकर सवाल पूंजी का आया, तो केजरीवाल फेल हो गये. क्योंकि वादे के अनुरूप 20 काॅलेज खोलने और पूरे शहर में सीसीटीवी लगाने के लिए पूंजी चाहिए. साल भर बाद भी न तो काॅलेज खुले न सीसीटीवी ही लग पाये.
न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास या उसके नाम पर पूंजी नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता चाहिए. देश की राजनीतिक सत्ता अगर इसी मोर्चे पर फेल हो रही है, तो केजरीवाल इसी मोर्चे पर कांग्रेस या बीजेपी पर भारी लगते हैं. समझना यह भी होगा कि दिल्ली सामाजिक सरोकार पर कम और रोजगार पानेवाले शहर की सोच पर ज्यादा टिकी है.
केजरीवाल के बरस भर की सियासत देश के लिए वैसी ही सोच है, जैसे गुजरात माॅडल देश का माॅडल नहीं हो पाया. केजरीवाल की दिल्ली की समझ भी राष्ट्रीय नेता नहीं बना सकती. लेकिन नेता की ईमानदारी को लेकर बोल हर किसी को जंचते हैं.
इसीलिए केजरीवाल बरस भर में दर्जनों बार यह कहने से नहीं हिचकते कि दिल्ली में भ्रष्टाचार नहीं होगा. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर उसे कैसे अपने पल्ले से झाड़ना है, यह हुनर भी बीते एक बरस में नजर आया. क्योंकि केजरीवाल के मंत्री तोमर फर्जी मार्क र्शीट में फंसे, तो दूसरे मंत्री असीम अहमद पैसे के लेनदेन के स्टिंग में फंसे. केजरीवाल ने दोनों मामलों में बड़ी हुनरमंदी से पल्ला झाड़ा.
इस एक बरस में दो दागों ने बड़ी तीखी सियासत भी जगायी और सियासत को मरता हुआ भी देखा. मसलन 22 अप्रैल, 2015 को दौसा के किसान गजेंद्र ने जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान खुदकुशी की, तो सवाल पार्टी के नेताओं की संवेदनहीनता पर भी उठे.
15 दिसंबर को केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर छापा पड़ा, तो सवाल सीएम की साख पर भी उठे. अब दिल्ली पुलिस आप नेता संजय सिंह, कुमार विश्वास, भगवंत मान और आशीष खेतान को जांच में हिस्सा लेने के लिए ठीक साल पूरा होने के वक्त ही तलब कर रही है. उधर, दिल्ली हाइकोर्ट ने सीबीआइ को अधिकार दे दिया है कि वह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के दफ्तर पर मारे गये छापे के दौरान जब्त दस्तावेजों को अपने पास रख सके. यानी हर मुद्दे पर सियासत व हंगामा दिल्ली को एक ऐसी पहचान भी दे गया, जहां दिल्ली सियासत के आगे देश की सियासत भी छोटी दिखायी दी.
इसीलिए 70 में 67 सीट जीतनेवाले केजरीवाल के 70 वादों की फेहरिस्त में कितने पूरे हुए कितने नहीं, यह सवाल छोटा पड़ गया और यह सवाल बड़ा होता चला गया कि दिल्ली की सियासत देश की सियासत में वाकई विकल्प है या हुड़दंग! क्योंकि, बरस भर में आम आदमी पार्टी या केजरीवाल वहीं चूके, जहां खड़े होकर वह राजनीतिक सत्ता के लिए कूदे. नतीजा, सत्ता पाने के बरस भर बाद भी स्वराज बिल पास नहीं हुआ और लोकपाल बिल पास होकर भी अटका हुआ है.
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