नीलोत्पल मृणाल
साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता
इस महीने दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला के बाद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी संपन्न हो गया. इन दोनों जगहों के साहित्य भले ही एक जैसे हों, पर साहित्यकार, पाठक और श्रोता के संस्कार का फर्क उतना ही है, जितना गांव के खबरू पांड़े के खाये एक रुपये वाले तिरंगा गुटखा और अजय देवगन वाले केसरयुक्त बिमल गुटखा के बीच है.
दिल्ली मेले में आनेवाले साहित्यकारों का थका चेहरा देख के आपको लगेगा कि यह आदमी पहले कहीं काम कर कुछ कमा के आया है. वापस जाने की इतनी हड़बड़ी होती है कि लगता है बेचारा मेला से जाके फिर ड्युटी पर लगेगा. वहीं जयपुर में आये साहित्यकार को देखिए, तो लगेगा यह आदमी दो-चार लाख रुपये वेतन बांट कर अपने कर्मचारियों को धंधे पर लगा कर आराम से लिटरेचर एंज्वॉय करने आया है.
दिल्ली मेले में हाथ में हेलमेट लिये पांडे जी, तिवारी जी, शर्मा जी, सिंह जी, कोहली जी, गुप्ता जी, यादव जी, मंडल जी, दास जी, श्रीवास्तव जी, (मैं जी) इत्यादि जी और कुछ साहित्यकार अपने पिता के दिये नाम में अपनी ओर से विद्रोही, अकेला, साजन, साज, आग, निराला, अनजाना, पहाड़ी, पथिक, जैसा कुछ प्राइवेट आइटम जोड़े रखे होते हैं. वहीं जयपुर में लेखक हवाई जहाज से आता है. जयपुर में सलमान रुश्दी, थॉमस पिकेटी, जेन डिसुजा, रॉनी स्क्रूवाला, क्रिस्टॉफी जेफ्रिलॉट, शोभा डे, नील मुखर्जी, करन जोहर, गुलजार इटीसी आते हैं.
दिल्ली मेला में लेखक को लंबा माइक दे दिया जाता है, जिसे देख आपको लगेगा कि संचालक बिजली थियेटर का एनाउंसर सैंटी सिंह सनसन है. वहीं जयपुर में लेखकों को इयरफोन दिया जाता है. उनका हाथ-पांव फ्री रखा जाता है, जिससे वे न केवल अंगरेजी में बोलें, बल्कि अंगरेजी में देह और हाथ भी हिलाएं. जयपुर में हिंदी-उर्दू के लेखक-शायर बोलते तो हिंदी में हैं, पर देह-हाथ अंगरेजी में ही हिलाते हैं.
जयपुर में आनेवाले पाठक-श्रोता भी तैयार टाइप होते हैं. ये वे होते हैं, जो दिल्ली मेला किसी के कहने या बाल-बच्चों को घुमाने की मजबूरी में चले गये थे, पर जयपुर में मर्जी से आये होते हैं.
इनके लिए दिल्ली का मेला संडे की छुट्टी का कामचलाऊ उपयोग है, पर जयपुर लिटरेचर में जाना एक उपलब्धि है. जयपुर लिटरेचर में बैठक होती है, दरबार लगता है और मुगल टेंट भी होता है. दिग्गी पैलेस में यह एक राजसी उत्सव है, किताबी राजशाही का पर्व है, मेला नहीं. दूसरी तरफ दिल्ली में खांटी किताबों का लोकतांत्रिक मेला, जहां एक ही हॉल तले सारे छोटे-बड़े प्रकाशक, लेखक बैठे-घूमते मिल जायेंगे. यह इसलिए नहीं कि सब कंगाल हैं, बल्कि इसलिए कि यहां पग-पग में लोकतंत्र है.
दरअसल, जयपुर अंगरेजी साहित्य नहीं, अंगरेजी कल्चरल मेला होता है, जहां सजी किताबों के स्टॉल मुझे कर्जन की उस आलमारी की तरह भयावह दिखते हैं, जो भ्रामक और दंभ भरा खोखला दावा करता है कि पश्चिम की आलमारी के एक सेल्फ की किताबों में पूरब का सारा साहित्य समा जायेगा. जयपुर लिटरेचर में जाइए, पर इसे थोड़ा लोकतांत्रिक बनवाइए. लोकतंत्र पैलेस नहीं, खुला मैदान देता है. इसे भी मैदान वाला मेला बना दीजिए, जो दिल्ली की तरह अपना लगे.