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धूमिल जनाकांक्षाओं का गणतंत्र
26 जनवरी, 1950 को हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष, संप्रभु व लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया. शासन की बागडोर जनता के हाथों में आ गयी. देश गणतंत्र हुआ, इसी के साथ कुछ उम्मीदें, जनाकांक्षाएं और सपने मन में पलने लगे. स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, खुदीराम बोस, भगत सिंह, राजगुरु […]
26 जनवरी, 1950 को हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष, संप्रभु व लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया. शासन की बागडोर जनता के हाथों में आ गयी. देश गणतंत्र हुआ, इसी के साथ कुछ उम्मीदें, जनाकांक्षाएं और सपने मन में पलने लगे. स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, खुदीराम बोस, भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद जैसे हजारों महापुरुषों ने देश के लिए कुर्बानियां दीं, ताकि हम गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर आजादी की स्वच्छंद हवा में जी सकें.
देश में स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की भावना को स्थापित करने के लिए लोकतांत्रिक गणराज्य की कल्पना की गयी थी. देश की जनता को भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति मिले, इसलिए हमने एक लोकतांत्रिक गणराज्य का ढांचा तैयार किया. देश ने सामाजिक, आर्थिक तौर पर उन्नति की.
विज्ञान, साहित्य और कला के क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय कार्य किये. किंतु इन तमाम उपलब्धियों के शोर में देश की गरीबी और विषमता को छुपाया नहीं जा सकता. गणतंत्र भारत के 65 वर्ष बीतने के बावजूद देश के लाखों लोग भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं. पिछले 10 सालों में करीब 2.5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. पिछले 20 सालों में एक करोड़ बेटियों की भ्रूण हत्या कर दी गयी.
अमीर और गरीब की खाई बढ़ती जा रही है. गरीबों, मजदूरों और बच्चों का शोषण अकसर खबरें बनती हैं. देश में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या बन कर उभरा है. देश के विकास में गरीबों, किसानों और वंचित मजदूरों का भी अथक योगदान रहा है. इसके बावजूद देश की जनता की जनाकांक्षाएं गणतंत्र भारत में धूमिल हुई है. इन विषम परिस्थितियों में याद आती है राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियां :-
आहें उठीं दीन कृषकों की, मजदूरों की तड़प, पुकारें, अरी! गरीबों के लोहू पर खड़ी हुई तेरी दीवारें!
– चंद्रशेखर कुमार, रांची
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