कृष्ण प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
सत्ता लाेक कल्याण के बजाय ‘व्यापार धर्म’ अपना कर लोभ-लाभ को संस्कृति बनाने और उसे तुष्ट करने पर तुल जाये, तो वही होता है, जो गोवा की सरकार ने नारियल के संदर्भ में किया है.
उसके एक फैसले में नारियल का पेड़ अब पेड़ नहीं रह गया है और ऐसा ही रहा, तो कहीं उसके फल से ‘श्रीफल’ की संज्ञा भी न छिन जाये!
गोवा के वनमंत्री राजेंद्र अर्लेकर ने कहा है कि नारियल तो जैविक रूप से पेड़ है ही नहीं, उसे 2008 में राज्य की कांग्रेस सरकार द्वारा गलती से पेड़ की श्रेणी मंें डाल दिया गया था. इस पर कई जानकार उन्हें यह बताने को आगे आये कि वैज्ञानिक नारियल को जिस पाम परिवार का सदस्य मानते हैं, उसके खजूर व ताड़ जैसे कई अन्य सदस्य भी पेड़ ही हैं. ये जानकार शायद इस भ्रम के शिकार हैं कि गोवा सरकार ने नारियल की बाबत अपनी अजीबोगरीब ‘व्यवस्था’ इन तथ्यों की जानकारी नहीं होने के कारण दी है. लेकिन वस्तुत: ऐसा है नहीं.
दरअसल, नारियल से उसकी पुरानी पहचान छीन लेनेवाला यह कदम किसी गैरजानकारी के कारण नहीं, खूब सोच-समझ कर उठाया गया है. राज्य सरकार का यह बहाना कि उसने 1984 के गोवा, दमन एंड दीव प्रिवेंशन आॅफ ट्री ऐक्ट के तहत नारियल को पेड़ की श्रेणी से बाहर करने का फैसला इसलिए किया, ताकि दक्षिण गोवा के संगुएन उप जिले में एक शराब कारखाने को अपने प्लाॅट में बड़ी संख्या में नारियल के पेड़ उगाने की ‘इजाजत’ दी जा सके.
यहां ‘इजाजत’ का निहितार्थ नारियलों को कभी भी काट फेंकने से है. वह पेड़ रहता तो उसे काटने के लिए सरकार की मंजूरी की जरूरत होती, जो जरूरत के वक्त शराब कारखाने को, क्या पता, मिलती या नहीं! गोवा की मशहूर शराब ‘फेनी’ नारियलों से ही बनती है. इसलिए वह शराब के कारखाने के लिए जरूरी कच्चा माल है. नारियलों का उपयोग खत्म हो जाने पर अपनी सुविधानुसार उनके तने काट-बेच कर लाभ कमाने की भी सहूलियत के चलते ऐसा फरेब किया जा रहा है.
दूसरा पहलू देखें, तो जैसे-जैसे देश में भूमंडलीकरण व्यापा है, कारोबारियों की अंधी कमाई के क्षेत्रों का विस्तार हुआ है. समुद्र किनारे नारियल की खेती के काम आनेवाली हजारों एकड़ जमीन रियल इस्टेट कारोबारियों की निगाह में गड़ने लगी है.
वे ताक में हैं कि कब नारियल के पेड़ कटें और वे उसे कब्जे में लेकर उस पर निर्माण से भारी मुनाफा कमायंे. नारियल को पेड़ ही न रहने देने से सच्चे अर्थों में उनके ही सपनों को पंख लगेगा. इसके विपरीत आम लोग जैसे समुद्रतट के मैंग्रोव वृक्षों की बलि देकर सुनामी का कहर भुगत चुके हैं, नारियल पेड़ों के कटने से आनेवाली कथित विकास की सुनामी का खामियाजा भी भुगतेंगे.
यह किसी एक राज्य का मामला नहीं, देश के प्राकृतिक संसाधनों की उस लूट की नयी कड़ी है, जिसके कारण नदियां, पहाड़, खदानें और आकाशीय तरंगें तक कौड़ियों के मोल धनपतियों की झोली में जा रही हैं.
नागरिकों को तुच्छ और निवेशकों को महान माननेवाली नीतियों का विकल्प अनुपलब्ध होने के कारण, जहां एक ओर यह लूट नहीं रुक पा रही है, वहीं अब इस लूट को वे सरकारें भी प्रोत्साहित कर रही हैं, जो उसे रोकने की शेखी बघारती हुई सत्ता में आयी थीं.