राजधानी दिल्ली की सड़कों पर हर दिन लाखों लोगों का रेला निकलता है. सड़कों पर पैदल चलते, बसों और मेट्रो ट्रेनों में सफर करते हुए हम इन आम चेहरों से रोज टकराते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. उनकी स्मृति हमारे साथ प्राय: दो कदम भी आगे नहीं चलती.
लेकिन, दिल्ली शहर के ऐसे ही कुछ गुमनाम चेहरों ने इस बार वहां हुए विधानसभा चुनावों में न सिर्फ तख्त पर दावा जताने का ‘दुस्साहस’ किया, बल्कि तख्त और ताज गिराने के यूटोपियन कारनामे को अंजाम भी दिया है. दिल्ली के विधानसभा चुनावों में जीतने और हारनेवालों की फेहरिस्त दिनकर के स्वप्न कथन ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ को साकार करती प्रतीत होती है.
नयी दिल्ली सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ अरविंद केजरीवाल की ऐतिहासिक जीत के चरचे तो हर जगह हैं ही, ‘रथी’ को ‘विरथ’ के हाथों मिली करारी हार के किस्सों की भी दिल्ली में इस बार कोई कमी नहीं है. कांग्रेस के कद्दावर नेता एवं पूर्व मंत्री एके वालिया नवागंतुक विनोद कुमार बिन्नी के हाथों पराजित हुए, तो पूर्व स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया को नौसिखिये सोमनाथ भारती के हाथों न सिर्फ हार का सामना करना पड़ा, बल्कि वे तीसरे नंबर पर खिसक गयीं.
विजेताओं की सूची में शामिल एनएसजी के कमांडो रहे सुरेंद्र सिंह, 26 वर्षीया पूर्व पत्रकार राखी बिरला, 10वीं पास राजू धींगन, एमए पास और फिलहाल बेरोजगार अखिलेशपति त्रिपाठी, मात्र बीस हजार रुपये की घोषित संपत्ति वाले धर्मेद सिंह कोली जैसे अनेक नाम आम आदमी की हैरतअंगेज जीत के किस्से कह रहे हैं. ऐसे समय में जब यह मान लिया गया है कि राजनीति को धनबल और बाहुबल संचालित कर रहे हैं, साधारण पृष्ठभूमि से आनेवाले इन चेहरों की जीत में अगर आम आदमी अपनी जीत देखना चाह रहा है, तो यह स्वाभाविक ही है.
लेकिन, ठहरिये. ऐसी जीत पहली बार नहीं हुई है. याद कीजिये 1970 के दशक के उत्तरार्ध के उन उथल-पुथल भरे वर्षो को. गुमनाम चेहरों की एक ऐसी ही पीढ़ी तब भी राजनीति में आयी थी, पर सत्ता की काली कोठरी की कालिख से बहुत कम लोग ही खुद को बचा पाये. देखना यह है कि दिल्ली में तैयार हो रही नयी राजनीतिक पीढ़ी खुद को इस कालिख से कितना बचा पाती है!