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क्या सर्वनाशक बनना जरूरी है?

उत्तरी कोरिया सरीखे किसी नये खलनायक की बजाय हमें महाशक्तियों के उन अस्त्र भंडारों से चोरी या तस्करी की फिक्र होनी चाहिए, जिन्हें हम बड़ी आसानी से सुरक्षित मान लेते हैं. उत्तरी कोरिया की इस घोषणा ने, कि उसने हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण कर लिया है, दुनिया भर में हलचल मचा दी है. इस […]

उत्तरी कोरिया सरीखे किसी नये खलनायक की बजाय हमें महाशक्तियों के उन अस्त्र भंडारों से चोरी या तस्करी की फिक्र होनी चाहिए, जिन्हें हम बड़ी आसानी से सुरक्षित मान लेते हैं.
उत्तरी कोरिया की इस घोषणा ने, कि उसने हाइड्रोजन बम का सफल परीक्षण कर लिया है, दुनिया भर में हलचल मचा दी है. इस देश की बदनामी एक निरंकुश दुष्ट राज्य की है, जिसे अंगरेजी में ‘रोग स्टेट’ कहते हैं. ‘दुर्जन से बच कर डर कर रहियो’ वाली कहावत के अनुसार, बाकी शक्तियां उसके साथ आचरण करती हैं. मददगार चीन भी किंचित दूरी बनाए रखता है अौर यह तय कर सकना कठिन है कि कौन किसका इस्तेमाल बेहतर करता रहा है.

अमेरिका भी, जो विचारधारा की दृष्टि से विपरीत ध्रुव है अौर परमाण्विक अप्रसार को अपनी विदेश नीति में प्राथमिकता देता है, उत्तरी कोरिया की परमाण्विक तस्करी के प्रति अंधा बना रहा है. यहां विस्तार से इस बात की खोजबीन का अवकाश नहीं कि कैसे इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के तार पाकिस्तान, ईरान तक फैले-उलझे हैं. इस घड़ी जिस चुनौती का हमें सामना करना है, वह बढ़ते आतंकवाद के माहौल में महाविनाश के इस संहारक हथियार को गलत हाथों में पहुंचने से रोकने की है. सोचिए, यदि यह हाइड्रोजन बम आइएसआइएस के पास पहुंच जाता है, तो फिर तबाही का क्या मंजर देखने को मिल सकता है- अगर कोई देखनेवाला बचा रहा!

इस तरह के हथियार ‘वेपंस अॉफ मास डिस्ट्रक्शन’ कहलाते हैं अौर इराक में सद्दाम हुसैन के तख्तापलट के वक्त से ही चर्चित रहे हैं. हमारी समझ से हमें कही-सुनी के अनुसार नहीं, ठंडे दिमाग से अपने राष्ट्रहित की पड़ताल कर किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए.
पहला सवाल यह है कि अगर हाइड्रोजन बम इतना खतरनाक सर्वनाशक है, तो उसे कोई भी बनाता ही क्यों है? क्या आतंक के संतुलन के लिए साधारण परमाणु बम काफी नहीं? इसके साथ जुड़े सवाल कम गंभीर नहीं. क्या यह सर्वनाशक हथियार मौजूदा महाशक्तियों अौर चीन के पास नहीं? क्या यह दोहरा पाखंडी मानदंड नहीं कि लगभग आधी सदी से ‘वह’ तो इनका जखीरा अपने कब्जे में रख सकते हैं, लेकिन दूसरा कोई नहीं! दुष्ट हो या सज्जन, क्या कोई संप्रभु राज्य इस तरह की सीमा अपने विकल्पों के चुनाव पर स्वीकार कर सकता है? याद रहे कि भारत पर उसके ‘शांतिपूर्ण’ परमाण्विक विस्फोटों के बाद जैसे अपमानजनक प्रतिबंध लगाये गये, उन्होंने परमाण्विक अप्रसार संधि की प्रासंगिकता को ही नष्ट कर दिया है. ईरान के खिलाफ भी अमेरिकी प्रेरणा से लगाये प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में दरार डालने अौर तनाव बढ़ानेवाले ही सिद्ध हुए हैं. इजरायल हो या पाकिस्तान, अौर शायद सऊदी अरब भी अमेरिका की कृपा से ये सभी नाजायज परमाण्विक अस्त्र संपन्न बन चुके हैं.
एक बात अौर. क्या यह सच नहीं कि बिना किसी महाविनाशक संहार अस्त्र के उपयोग के ही लाखों निरीह अपनी जान पिछले दशकों में गंवा चुके हैं. जमीनी सुरंगे हों या पुराने किस्म के बम या साधारण राइफलें, ग्रेनेड वगैरह से ही जाने कितने मुल्क तबाह हो चुके हैं. श्रीलंका, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया अौर अफ्रीका महाद्वीप के दर्जनों अभागे देशों के लिए यह सांत्वना किस काम की है कि उनके विरुद्ध एटम या हाइड्रोजन बम का प्रयोग नहीं किया गया है? यही बात भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में भी कही जा सकती है. जम्मू-कश्मीर राज्य में 1980 के दशक से जारी अलगाववादी दहशतगर्दी के शिकारों का आंकड़ा लाख की संख्या के पास पहुंच चुका है.
उत्तरी कोरिया वास्तव में विचित्र देश है. वहां जिस नमूने का साम्यवाद प्रतिष्ठित है, वह विश्वभर में कहीं शेष नहीं रहा है. उग्र अतिवादी वामपंथी कट्टरपंथी का संगम पीढ़ी-दर-पीढ़ी सनकी, तुनुकमिजाज, कुनबापरस्ती के साथ होने से इस देश का नाता बाकी दुनिया से नाम-मात्र का ही बचा है. वहां की हकीकत के बारे में अनुमान ही लगाया जा सकता है- भाग्यशाली बच निकले चश्मदीद गवाहों के बयानों से. किम के वंशजों की पाशविक बर्बरता के जो किस्से बीच-बीच में सुर्खियों में झलकते हैं, उन पर अंशतः भी यकीन करें, तो इस देश की स्थिति नारकीय है अौर बात तर्कसंगत नहीं लगती कि उसकी तकनीकी क्षमता हाइड्रोजन बम बना सकने की है. मगर इस बात को भी नजरंदाज नहीं कर सकते कि तस्करी का सहारा लेकर कोई राक्षसी प्रवृत्ति का तानाशाह एक-दो ऐसे हथियार जुटा सकता है. अपने रॉकेटों का सफल परीक्षण कर उत्तरी कोरिया दक्षिणी कोरिया को ही नहीं जापान को भी आशंकित कर चुका है. यह बात इस वक्त गौण है कि इस भस्मासुर को जन्म देने में चीन अौर अमेरिका ने सहर्ष हाथ बंटाया है. विडंबना यह है कि जिन महाविनाश के संहारक हथियारों को नष्ट करने के बहाने सद्दाम को मारा गया तथा इराक में सत्ता परिवर्तन वाली रणनीति पलक झपकते अपना ली गयी, उनके ‘सबूत’ खुद खलनायक द्वार पेश किये जाने के बाद भी अमेरिका या अौर कोई हरकत में नहीं आता दिखता!
इस बात से किसी को अचरज नहीं होना चाहिए कि इस वक्त ‘सबसे भली चुप का सहारा’ लेनेवाले कुछ राजनयिक जल्दी ही हमें यह समझाने की चेष्टा करेंगे कि वास्तव में उत्तरी कोरिया के पास हाइड्रोजन बम नहीं है. यह तो बस पड़ोसियों को धौंस-धमकी से सहमाने का प्रयास है. या इस बहाने अपनी चरमराती अर्थव्यवस्था की मरम्मत अौर अकाल पीड़ित आबादी को जरा-सी राहत पहुंचाने के लिए भयादोहन द्वारा कुछ मदद हासिल करने की राजनयिक रणनीति है.
हम फिर यह दोहराना चाहते हैं कि उत्तरी कोरिया आज भी अभी तक विश्व शांति के लिए बड़ा संकट नहीं. लगता है कि मध्य-पूर्व में अरब जगत में अपनी नाकामी से आलोचकों की नजरें अन्यत्र भटकाने के लिए कोई कुटिल साजिश रची जा रही है. पुतिन का यूक्रेन में सैनिक हस्तक्षेप-कब्जा अभी भी समाप्त नहीं हुआ. सीरिया में आइएसआइएस नामक खूंखार दानव पराजित नहीं किया जा सका है. यह रक्तबीज है. अलकायदा की तरह एक जगह इसका उन्मूलन हुआ, तो कहीं अौर फिर फन फैला कर जहरीले दंश देने को उतावला होगा.
इस वक्त किसे याद है या इस बात की चिंता है कि दक्षिणी सूडान में कितनी जानें अकाल में गंवायी जा चुकी हैं, जिनको किसी हाइड्रोजन बम या अन्य महाविनाशकारी संहारक हथियार के खाते में नहीं डाला जा सकता? मेरा मानना है कि ‘वेपंस अॉफ मास डिस्ट्रक्शन’ वाला ‘भेड़िया’ बड़े मौकापरस्त तरीके से दरवाजे पर खड़ा दिखाया जाता है. उत्तरी कोरिया सरीखे किसी नये खलनायक की बजाय हमें महाशक्तियों के उन अस्त्र भंडारों से चोरी या तस्करी की फिक्र होनी चाहिए, जिन्हें हम बड़ी आसानी से सुरक्षित मान लेते हैं.
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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