झारखंड हाइकोर्ट ने हाल के दिनों में कई मामलों को लेकर कभी सरकार को, तो कभी उसके अधिकारियों को खूब फटकार लगायी है. चाहे वह सरकारी दफ्तरों में काम न करने का मामला हो या एनएच 32 और एनएच 33 के खस्ताहाल होने के बावजूद उनकी मरम्मत न होने का मामला हो.
वर्षो से लंबित जमशेदपुर की 86 बस्तियों को टाटा द्वारा बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं देने का मामला हो या सचिवों-अधिकारियों का आये दिन होनेवाले तबादले का मामला. हाइकोर्ट ने वह कहा जो लोगों के पक्ष में था. इसमें कोई दो राय नहीं कि आम आदमी का विश्वास सरकार और उसकी संस्थाओं के प्रति लगातार कम होता जा रहा है. लोग परेशान हैं, कोई जनता की सुनने वाला नहीं है.
सरकारी विभागों में क्लर्क से लेकर सचिव तक या तो रिश्वत की भाषा समझते हैं या पैरवी की. छोटा सा काम कराने के लिए भी लोगों को महीनों परेशान होना पड़ता है. दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं. ऐसे में जब न्यायपालिका आम आदमी की पीड़ा को समझ कर कोई महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है तो लोगों को दर्द पर मरहम लगाने जैसा महसूस होता है. झारखंड अभी जिस दौर से गुजर रहा है, उसके मद्देनजर दीर्घकालीन विकल्प के तहत कार्यपालिका और विधायिका को अपना सोच बदलने की जरूरत है. लगभग सभी राजनीतिक दल मूल्यों के हृास की बीमारी से पीड़ित हैं.
ये सत्ता के घातक मोहपाश से बंधे हैं. इसके चक्कर इन्हें अपने कर्तव्यों के निर्वहन की कोई फिक्र नहीं है. इसीलिए अपना दायित्व निभाने में सुस्ती दिखाने पर, विधायिका और कार्यपालिका की न्यायपालिका को खिंचाई करनी पड़ती है. राजनीतिक दलों को यह महसूस होना चाहिए कि उनके अस्तित्व का एकमात्र मकसद केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि चुनाव जीतने के बाद शासन- प्रशासन को दुरु स्त करना है. यह काम जनहित में किया जाना चाहिए, न कि किसी पार्टी या पार्टियों के हित में. यह एक लंबी लड़ाई है, जिसके लिए अनवरत काम करना होगा. अभी बहुत कुछ करना बाकी है. वरना एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब आम आदमी का भरोसा कार्यपालिका और विधायिका से हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा. वह दिन लोकतंत्र के लिए सबसे अशुभ होगा.