कोई कह रहा है- वो खुशकिस्मत हैं, जिनकी पत्नी नहीं है. अगर होती, तो दम हो गया होता आपकी नाक में. यह सुन कर हमें पच्चीस साल पहले सुहागरात का सीन याद आता है. पत्नी ने घूंघट उठाते ही ऐलान कर दिया था कि दूसरों की शादियों में भालू-बंदर नहीं बनोगे. बर्तन साफ नहीं करोगे. ये समाज सेवा बंद. घर में काम क्या कम है.… तब से तानाशाही निर्बाध कायम है.
सच कहूं दोस्त, पत्नी के होने के अच्छे पहलू भी बहुत हैं. कोई तो है, जिसे हमारे विलंब से आने पर चिंता होती है. कहती है, दफ्तर में फलानी से दूरी बना के रहना. सूरत से चिकनी-चुपड़ी मगर अंदर से निरी चुड़ैल है. बातें धर्म-कर्म की, मगर फैशन हेमा मालिनी जैसे. पार्टी में जाने से पहले मीनू तय कर देती है. क्या खाना है और क्या नहीं. लौट कर आने पर पूछती है क्या-क्या खाया? और कौन था वहां? क्या बातें हुईं? वो दफ्तरवाली चुड़ैल तो नहीं थी वहां? इसके अलावा, फ्री में वो ढेर सारे सवाल, जो एक मनोचिकित्सक मोटी फीस लेकर पूछता है.
हमें जरा सी छींक आती है, तो परेशान खुद भी होती है, हमें भी करती है. यहां नहीं, वहां बैठो. थोड़ी-थोड़ी देर पर माथा और गर्दन छूती है- कहीं बुखार तो नहीं. चलो डॉक्टर के पास. दवा दिला देती हूं. एक डोज में भले-चंगे हो जाओगे. यह देख, सच्ची, मां की याद आती है. वह भी ऐसा ही ख्याल रखती थीं. हमें लगता है, जिंदगी के एक खास पड़ाव के बाद पत्नी बिल्कुल मां जैसी दिखनी शुरू हो जाती है.
सचमुच वह दिन कितना खराब होता है, जब पत्नी अस्वस्थ होती है. मरघट सा सन्नाटा है. उसे खाना अच्छा नहीं लगता, तो हम भी नहीं खा पाते. मरियल सी वाणी में कहती रहती है- कितनी बार कहा थोड़ा चौका-बर्तन सीख लो. वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर काम आयेगा… खैर अब थोड़ा-बहुत जैसे-तैसे बना दिया है. खा लेना, नहीं तो कमजोर हो जाओगे. तुम्हें सुबह-शाम बीपी और हाइपरटेंशन की दवा भी खानी है. ये सख्त सर्दी का सीजन बड़ा खतरनाक होता है. तुम ताकतवर नहीं होगे, तो मेरा ख्याल कैसे रखोगे? मेरी चिंता मत करो. मैं अभी जानेवाली नहीं. दवा खा ली है. देखना कल तक ठीक हो जाऊंगी. बच्चे बड़े हो गये हैं, मगर तुम्हारे जैसे ही नालायक हैं. ध्यान रखना इनका, कहीं उल्टा-सीधा खाकर बीमार न पड़ जायें.
अगले दिन सुबह हम उनको बिस्तर पर नहीं पाते. इधर-उधर भी नहीं हैं. हम परेशान होते हैं. तभी खिड़की पर नजर पड़ती है. वो खरामा-खरामा चली आ रही हैं, पड़ोसन से बतियाते हुए. हाथ में दूध की थैलियां और ब्रेड है. वो ताना मारती हैं. तुम तो घोड़े बेच कर सो रहे थे. सोचा मैं ही ले आऊं. देर होने पर सब बिक जाता है. अब जल्दी से ब्रश कर लो. चाय चढ़ा रही हूं.
उनकी आवाज में पुरानी खनक है. हम आश्वस्त होते हैं कि वो ठीक हैं. काम पर वापस आ गयी हैं और साथ में हम भी पहले जैसे आज्ञापालक बनने की भूमिका में वापस आने के लिए तैयार हैं.
दूर कहीं गाना बज रहा है- जीना इसी का नाम है…
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
chhabravirvinod@gmail.com