।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
हरियाणा के एक गांव में एक बंदर आ गया. लोग बंदर को भगाने में लग गये, तो बंदर एक पेड़ पर चढ़ बैठा. फिर क्या था, सारे गांव के लोग पेड़ के नीचे जमा हो गये और लगे पत्थर फेंकने. ताऊ वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने पूछा कि रै बावली बूच, इब की होन लग्गा रै? सबने कहा हम बंदर को भगा रहे हैं. ताऊ ने पूछा, बंदर की साइड कौन है? भीड़ में से एक ने कहा, कती कोई नहीं. ताऊ बोल्या, तो चल, मैं हूं बंदर की साइड. पहले म्हारे से निपट. यह कहानी सब हिंदुस्तानी ताउओं की कहानी है. समाज को नेतृत्व देनेवाले बुजुर्गो का सच हुआ करता था यह. निरीह, अकेले और कमजोर के साथ खड़ा होना हिंदुस्तानी संस्कृति का अंग था. अंडरडॉग को टॉपडॉग देखने का सपना. मजबूत खलनायक के सामने कमजोर नायक के लिए ताली बजाना. गड्ढे में फंसे जानवर को निकालना और गिरते को संभालना. सामाजिक संवेदना का यह अंश अब नाम-मात्र हमारे साथ है. अब हारे को हरिनाम नहीं है. सबको कुटे को कूटने की पड़ी है. हम हरी में हैं दबे को दबाने की. इतना गलत हुआ है कि गलती को माफ करने की आदत नहीं रही. कोई सड़क पर पिट रहा हो, तो कई बिला-वजह हाथ साफ कर बिला जाते हैं. घर-दफ्तर का गुस्सा निकाल आते हैं. किसी ने गलती की, तो सब हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं, मौका मिले, तो चढ़ जाते हैं.
जात-पात हो या सांप्रदायिक दंगे, कमजोर पर इस कदर बेदिल पिल पड़ना हम अकसर देखते हैं. किसी की गाड़ी से टक्कर लग गयी, तो गाड़ीवाले को दौलत के नशे में चूर बताते हैं. मार नहीं पाते, तो मार-मार कर अधमरा कर देते हैं. सही-गलत के पीछे माथा कौन लगाये, जब तक माथा किसी और का हो और पत्थर हमारा. नरेंद्र मोदी ने विक्रमशिला को तक्षशिला क्या बोल दिया, किसी ने नहीं माना कि जुबान फिसली होगी. सबने मन बना लिया नरेंद्र मोदी को इतिहास नहीं आता. या फिर वह फेंकनेवाला है. कुछ भी बोल जाता है. इनसान खता का पुतला है, पर आज के जमाने में इस पुतले पर कालिख पुतने का वृहद् इंतजाम है. आसाराम बड़े ढोंगी बाबा थे, पर जब तक बाहर थे, तब तक संत थे. अंदर गये हैं, तो लक्ख लानत भेडा जड़िया हल. हर आदमी का अपना दिमाग है, पर भीड़ का नहीं होता. मॉब मेंटैलिटी होती है. इसलिए फांसी की मांग पर ज्यादा लोग सर हां में हिलाते हैं. कुछ लोग तो यह भी कहते पाये जाते हैं कि चोरों के हाथ काट देने चाहिए, क्योंकि जो बच गया, वह सयाना है, हाथ नहीं आना है. जो पकड़ा गया, उसका उदाहरण बनाना है. उदाहरण नहीं बन सकता, तो छवि तो बना ही सकते हैं.
जैसे मोदी को इतिहास का ज्ञान नहीं है. आजकल उनके भाषणों के हर शब्द लपकते हैं, विश्लेषकों के लार टपकते हैं, जब कोई आंकड़ा ऊपर-नीचे मिल जाये, या कोई तथ्य इधर-उधर हो जाये. जिनको इतिहास की इति नहीं आती, वह भी हास कर रहे हैं. अगर वही लेंस लेकर लालकृष्ण आडवाणी के लब पढ़े जायें, तो वहां भी ऐसे हीरे-मोती मिल जायें. पर आडवाणी की छवि अज्ञानी या फेंकू की नहीं है. उनकी गलती को गलती जान लेंगे. मोदी वही गलती करें, तो अज्ञानी मान लेंगे. राहुल गांधी कुंवारे रह जायेंगे, पर किसी विदेशी लड़की से शादी नहीं कर पायेंगे. जिनकी छवि ऐसी नहीं है, वह स्वतंत्र हैं. पर राहुल में विदेशी वाला स्टीकर चिपक जायेगा. मुलायम सिंह की घोर जातिवादी छवि है, उन्होंने और उनके बच्चों ने अन्य जातियों में शादी रचायी, पर उदारवादी छवि चस्पां नहीं कर पाये. कोई यूपी का आदमी हिंदी गलत बोले, तो वह गलती है, तमिलनाडु वाला हिंदी गलत बोले, तो अज्ञानी है. फ्रांस का आदमी फ्रेंच लहजे में अंगरेजी बोले, तो बहुत क्यूट लगता है, लेकिन कोई बिहारी लहजे में अंगरेजी बोल दे, तो उसको सही उच्चारण आता ही नहीं है. गोरे को सब माफ, हमरा पत्ता साफ.
प्रधानमंत्री कमजोर है. बीजेपी सांप्रदायिक है. लालू भ्रष्ट हैं. नीतीश कुमार दूध के धुले हैं. यूपीए चोरों की सरकार है. अरविंद केजरीवाल ईमानदार हैं. नरेंद्र मोदी निर्णायक हैं. अनु मालिक गायक हैं. हो सकता है ये सब इसी लायक हैं, पर कभी सोचा कि ऐसा नहीं भी हो. ये सब हमें बने-बनाये मिले, हमने बिठा लिये. तब तक, जब तक यह भ्रांति टूट न जाये. विश्वास की डोर छूट न जाये. हमारे मानने न मानने से क्या फर्क पड़ता है, है न? फर्क पड़ता है, अगर हम सवाल करें. ताऊ के इतना कहने भर से कि वह बंदर के साथ हैं, लोगों के हाथों से पत्थर छूट गये. ताऊ पर पत्थर कौन मार पाता! लोग अपने-अपने घर गये, इस एहसास के साथ कि बंदर बेगुनाह था. हम क्यों उसे मारने पर आतुर थे? और यह भी कि यह सवाल भीड़ का हिस्सा बनने से पहले क्यों नहीं आया. हमसे भीड़ है, भीड़ से हम नहीं.