अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के कदमों में भूमि अधिग्रहण कानून में परिवर्तन, श्रम कानूनों में संशोधन और जीएसटी को लागू करना अहम हैं. इनमें भूमि अधिग्रहण बिल पर व्यापक विरोध के कारण सरकार पहले ही अपने कदम पीछे खींच चुकी है.
श्रम कानूनों में फेरबदल के प्रस्तावों पर ठोस कदम उठाया जाना बाकी है. ऐसे में माना जा रहा था कि आगामी वित्तीय वर्ष से जीएसटी लागू होने से निवेश और वाणिज्य के लिए सकारात्मक वातावरण बनाने में मदद मिलेगी तथा सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता भी दृष्टिगोचर होगी. यदि इस सत्र में जीएसटी विधेयक को संसद की मंजूरी नहीं मिली, तो इसे अगले वित्त वर्ष से लागू नहीं किया जा सकेगा. संसद के अलावा देश की 50 फीसदी विधानसभाओं से भी इस विधेयक को संस्तुति लेनी है.
कराधान के मामले में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों की भूमिकाएं निर्धारित हैं. माना जा रहा है कि जीएसटी के अमल में आने के बाद कई तरह के कर इस नयी कर प्रणाली में समाहित हो जायेंगे, जिससे भविष्य में कर-राजस्व में भी वृद्धि होगी. पर, अभी यह दूर की कौड़ी लग रही है, क्योंकि संसद में राजनीतिक तनातनी के बीच यह मुद्दा हाशिये पर चला गया है. जब यूपीए की सरकार थी, तब मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने इसमें अड़ंगा डाला था. अब भाजपा सत्तारूढ़ है, तो कांग्रेस बाधा बन कर खड़ी दिख रही है. विडंबना है कि कांग्रेस समेत अनेक विपक्षी दलों ने इस विधेयक को समर्थन देने की घोषणा की है. कई क्षेत्रीय दलों ने यह भी मांग की है कि संसद की कार्यवाही चलने दी जाये. संसद चलेगी, तभी विधेयक पर चर्चा हो सकेगी, और चर्चा होने पर ही इसकी खूबियां और खामियां सामने आयेंगी. इसलिए जरूरी है कि देश हित का ख्याल करते हुए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी तनातनी को जल्द खत्म करें और जीएसटी विधेयक पर सहमति के बिंदु तलाश कर कोई ठोस निर्णय लें.