इस साल राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के मौके पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारत में वैज्ञानिक शोध एवं विकास (आर एंड डी) पर जरूरत से कम खर्च पर चिंता जताते हुए कहा था, ‘नयी ज्ञान अर्थव्यवस्था में भारत की समृद्धि इस बात पर निर्भर करेगी कि वह नये विचारों, प्रक्रियाओं व समाधानों को जन्म देने में कितना सफल होता है.’
विडंबना यह है कि ऐसी चिंताएं मुख्यधारा के मीडिया को शायद ही कभी गंभीर बहस के लिए प्रेरित करती हैं. इसकी एक नजीर तब देखने को मिली जब भारत रत्न से नवाजे गये देश के शीर्षस्थ वैज्ञानिक प्रोफेसर सीएनआर राव ने पत्रकारों से बातचीत के दौरान देश के वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में पिछड़ने की वजहों को सामने रखा.
राव के मुताबिक, ‘भारत में वैज्ञानिक शोधों को अंजाम देने के लिए जरूरी संसाधन का अभाव है. किसी शोध को पूरा करने के लिए जितने पैसे की दरकार होती है, सरकार द्वारा उसका 20 फीसदी ही मुहैया कराया जाता है और वह भी समय पर नहीं मिलता.’ आंकड़े बताते हैं कि भारत आर एंड डी पर जीडीपी का महज 0.9 प्रतिशत ही खर्च करता है, जो चीन, इस्नयल या ब्रिटेन जैसे देशों से काफी कम है.
आज के ग्लोबल और प्रतिस्पर्धी युग में विज्ञान की यह उपेक्षा चिंताजनक ही कही जा सकती है. लेकिन, इस पर ‘बड़ी बहस’ छेड़ने के बदले, जिस तरह से नेताओं पर की गयी प्रोफेसर राव की टिप्पणी को सुर्खियों में शामिल किया गया, वह विज्ञान के प्रति व्याप्त उदासीनता को सामने लाता है.
ऐसे में क्या आश्चर्य कि विश्व में वैज्ञानिक नवाचार के मामले में भारत की रैंकिंग 66वीं है! सालभर में अमेरिका या चीन में नये पेटेंट के लिए दाखिल आवेदनों की संख्या भारत से 12 गुनी है! यह भविष्य को लेकर हमारी कमजोर तैयारी की ओर इशारा करता है. इसके परिणामों को प्रोफेसर राव के शब्दों में समझा जा सकता है.
उनके मुताबिक, ‘भारत का आनेवाला कल तभी सुरक्षित है, जब हम मौलिक विज्ञान और वैज्ञानिक शिक्षा में ज्यादा से ज्यादा निवेश करें. वैज्ञानिक तरक्की करनेवाले देश ही आर्थिक प्रगति कर पाये हैं. जिन्होंने इसकी उपेक्षा की, उन्हें कोई नहीं जानता.’ प्रणब मुखर्जी और अब प्रोफेसर राव की चिंता ताउम्र देश की सेवा में समर्पित शख्सीयतों की चिंता है. यह हमारी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार की मांग करती है.