अनेक आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट से भारत लाभ उठाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकता है. इस बहस में अपनी राय रखते हुए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानागढ़िया ने कहा है कि चीन की मंदी को अवसर में बदलने के लिए यह जरूरी है कि भारत अपनी आर्थिक नीतियों में त्वरित सुधार करे. मौजूदा वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में चीन की विकास दर 6.9 फीसदी के स्तर पर आ गयी है. पानागढ़िया ने चीन में आ रही गिरावट को उसकी परेशानी नहीं माना है, क्योंकि जब अर्थव्यवस्था आय के इस उच्च स्तर तक पहुंचती है, तो वृद्धि का धीमा होना स्वाभाविक है. इनके बयान दो अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण हैं.
पहला यह कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने आर्थिक सुधारों की गति बढ़ाने की जरूरत को फिर से रेखांकित किया है, जिस पर बड़ी संख्या में विशेषज्ञ और निवेशक जोर देते रहे हैं. दूसरा महत्व इस लिहाज से है कि कुछ समय पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने चीन की परेशानी का भारत पर नकारात्मक असर पड़ने की बात कही थी. पानागढ़िया ने राजन की बात को पूरी तरह से खारिज नहीं किया है और कहा है कि इस घटनाक्रम के प्रभाव का स्वरूप आखिरकार हमारी नीतियों पर ही निर्भर करता है. चीन में वेतन काफी अधिक हो चुके हैं, जिसका असर चीनी कंपनियों की प्रतिस्पर्द्धात्मक क्षमता पर पड़ रहा है. संभावना है कि चीन अपनी घरेलू मांग पर आनेवाले दिनों में अधिक ध्यान दे सकता है. इस कारण उसका निर्यात कम हो सकता है.
निश्चित रूप से अनेक निवेशक और खरीदार किसी अन्य देश का रुख कर सकते हैं. ‘मेक इन इंडिया’ और निवेश में भारी छूट के जरिये भारत एक आकर्षक विकल्प है. लेकिन इसके लिए श्रम कानूनों और कर प्रणाली में बड़े बदलाव जरूरी हैं. राजनीतिक खींचतान के कारण भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कोई सहमति नहीं बन सकी, तो जीएसटी विधेयक भी लंबित है. श्रम कानूनों में सुधार के लिए अपेक्षित प्रयास अभी शुरू भी नहीं हुए हैं.
ऐसे में सिर्फ निवेश की सीमा बढ़ाने से पूंजी को आकर्षित नहीं किया जा सकता है. नीतियों में परिवर्तन संसद और विधानसभाओं का काम है, जहां राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि पक्ष और विपक्ष में बैठे हैं. इसलिए सत्तारूढ़ दलों समेत सभी पार्टियों का यह कर्तव्य है कि वे आर्थिक समृद्धि की राह में पड़े अवरोधों को दूर करें. ठोस अर्थव्यवस्था ही बेहतर लोकतंत्र की बुनियाद हो सकती है. उम्मीद है कि सरकारें और पार्टियां परस्पर रस्साकशी के बजाय राष्ट्रहित में सुधार कार्यक्रमों को लागू करने को अपनी प्राथमिकता बनायेंगी.