।। विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
हिटलर का एक प्रचारमंत्री था गोबेल्स. प्रचार-तंत्र को कैसे सफल बनाया जा सकता है, इसका एक उदाहरण था गोबेल्स. उसका सबसे बड़ा और सबसे चर्चित प्रचार-मंत्र था- एक झूठ को यदि सौ बार बोला जाये, तो वह सच बन जाता है. राजनीति में इस मंत्र को कई बार आजमाया गया है और आजमानेवाला कभी निराश नहीं हुआ है. हमारे देश में तो राजनेता अकसर इसी मंत्र के सहारे अपनी राजनीति चलाते देखे जाते हैं. इस मंत्र को अधिक धारदार और असरदार बनाने के लिए हमारे राजनेताओं ने इसमें एक बात और जोड़ दी है- वे यह मान कर चलते हैं कि बात को जितनी जोर से कहा जायेगा, वह उतनी ही ज्यादा सच्ची मानी जायेगी और उसका उतना ज्यादा असर होगा. इसीलिए हमारे नेता अकसर जोर से बोलते हैं- टीवी स्टूडियो में बैठ कर भी वे धीरे से अपनी बात नहीं कहते. यह जानते हुए भी कि स्टूडियो का माइक पर्याप्त सेंसेटिव होता है और सुननेवाला यदि चाहे तो अपने टीवी का वॉल्यूम बढ़ा कर भी सुन सकता है. हमारे नेता अकसर बोलना नहीं, चिल्लाना पसंद करते हैं.
चुनावों के मौसम में यह अकसर होता है, इसीलिए चुनावी सभा, चाहे वह किसी भी पार्टी की या किसी भी नेता की क्यों न हो, शोर-शराबे वाली सभा बन कर रह जाती है. एक और खास बात होती है हमारी चुनावी सभाओं की- नेता यह मान कर चलते हैं कि श्रोता यानी जनता अपना विवेक घर छोड़ कर आती है. ऐसे में जर्मनी के गोबेल्स का मंत्र तो ज्यादा कारगर होता ही है, हमारे नेता यह मान कर चलते हैं कि जनता को आसानी से मूर्ख बनाया जा सकता है. जनता की याददाश्त कमजोर होती है और अकसर वह बातों को भूल जाना पसंद करती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जनता को कुछ पता ही नहीं रहता. जनता वह सब याद रखती है, जो याद रखने लायक होता है. हमारे नेताओं को यह जानना जरूरी है कि ‘यह पब्लिक है, सब जानती है.’
यह जानने के अलावा हमारे नेताओं को एक बात समझनी होगी. उनकी लच्छेदार बातें, उनके लटके-झटके और उनका चिल्लाना तालियों का सबब तो बन सकता है, लेकिन उससे बात नहीं बनती. जितनी बड़ी सभा, उतना बड़ा नेता वाली बात भी कुछ माने नहीं रखती. वह जमाना लद गया, जब नेताओं के भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटती थी. सब जानते हैं कि अब भीड़ जुटायी जाती है. भले ही हमारे नेता ‘जन-समुद्र’ देख कर सुखद आश्चर्य व्यक्त करते रहें, पर कहीं न कहीं वे इस तथ्य को जानते हैं कि यह जन-समुद्र उनके अपने लोगों ने ‘बड़ी मेहनत’ से जुटाया है. आजकल एक और ‘भीड़’ भी जुटायी जाती है- टीवी चैनलों की भीड़. इसके लिए भीड़ के आयोजकों को यह प्रचारित करना पड़ता है कि भीड़ शानदार होगी और नेता का भाषण भी. इसके अलावा चैनल यह भी देखते हैं कि किस नेता के साथ कितनी टीआरपी नत्थी है. एक बार जब उन्हें लगता है कि फलां नेता टीआपी वाला है तो वे खुद खिंचते चले आते हैं. घंटा-घंटा भर के भाषण लाइव दिखाये जाते हैं और फिर घंटों उन भाषणों पर चर्चा होती है. चौबीसों घंटे चैनल चलाने की मजबूरी होती है. नेता भीड़ जुटाते हैं और चैनल टीआरपी.
जनतांत्रिक व्यवस्था में ये सारी बातें परेशान करनेवाली हैं, लेकिन परेशानी उन बातों से भी है जो चुनावी सभाओं में हमारे नेता करते हैं. उम्मीद की जाती है कि नेता जनता को यह बतायेंगे कि देश के सामने खड़ी समस्याओं से निपटने के लिए उनके पास क्या दृष्टि है, क्या योजनाएं हैं? अब तक उन्होंने ‘सेवा’ के नाम पर क्या किया है, आगे वे क्या करना चाहते हैं? उनकी अर्थनीति क्या है, वैदेशिक संबंधों के बारे में वे क्या सोचते हैं? हमारी शिक्षा-नीति में क्या कमी रह गयी है? समुचित विकास के लिए हमें क्या करना चाहिए? आर्थिक विषमता कैसे दूर होगी? सामाजिक एकता को बढ़ावा देने के लिए क्या किया जाना चाहिए? सांप्रदायिकता की समस्या सुलझाने में हम कहां चूक कर गये? जातीयता की समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? ऐसे ढेरों सवाल हैं जिसके उत्तर नेतृत्व को देने होते हैं. पर हमारे नेताओं के भाषणों में ये शब्द तो होते हैं, लेकिन शब्दों के पीछे जो प्राण-शक्ति होनी चाहिए, वह दिखायी नहीं देती. यह प्राण-शक्ति ईमानदारी से आती है- और हमारी त्रसदी यह है कि हमारे देश में ईमानदार नेतृत्व का अभाव है.
एक नेता आता है, अपनी पारिवारिक त्रसदी और शहादत की दुहाई देकर हमारी संवेदना जीतने की कोशिश करता है. दूसरा नेता आकर आंसू पोंछने की बात करने लगता है. न पहला यह समझना चाहता है कि शहादत अनमोल होती है, न उसकी कीमत लगायी जा सकती है, न चुकायी जा सकती है; और न दूसरा यह समझता है कि समाज और देश के आंसू शब्दों के रूमाल से नहीं पुंछते. जो पचास साल में नहीं हो पाया, उसे पांच साल में करने की बात सुनने में अवश्य अच्छी लगती है, पर यह कोई क्यों नहीं बताता कि पांच साल में यह जादू होगा कैसे?
हमारी चुनावी राजनीति की त्रसदी यह भी है कि बुनियादी मुद्दों की बात हमारा नेतृत्व नहीं कर रहा, वह सिर्फ मुद्दे लपकता दिखायी दे रहा है. पिछले कुछ दिनों में ‘शहजादे’ और ‘प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार’ के बीच मुद्दे लपकने वाली इस राजनीति की रस्साकशी का खेल देश ने खूब देखा है. ‘उम्मीदवार’ को ‘शहजादे’ का अपनी मां के आंसुओं की बात करना गलत लगता है, पर चाय बेचनेवाले अपने बचपन की दुहाई देकर गरीबी को जानने की बात करना नहीं बुरा लगता. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों पर हुए अत्याचार की बात तो उन्हें याद रहती है, लेकिन गोधरा-कांड के बाद गुजरात दंगे को वे याद नहीं रखना चाहते. इस तरह की बातें याद रहनी चाहिए, ताकि हम इस बारे में सावधान रहें कि ऐसा फिर कभी न हो. आम चुनाव की दहलीज पर खड़े देश में जो बात नहीं भूलना जरूरी है, वह यह है कि देश की जरूरत समतावादी समाज है, जिससे सबको आगे बढ़ने का समुचित अवसर मिले. देश की जरूरत समन्वित विकास है, एक स्वस्थ और प्रगतिशील समाज का निर्माण है. इन मुद्दों पर हमारा नेतृत्व बात क्यों नहीं करता? सतही और भावनात्मक मुद्दे उठा कर अथवा वैयक्तिक आरोपों-प्रत्यारोपों के सहारे राजनीतिक नफा-नुकसान का समीकरण बिठाने वाले हमारे नेता एक स्वस्थ राष्ट्र-राज्य के लिए जरूरी मुद्दों के बारे में कब सोचेंगे? देश को आज जमीनी मुद्दों से जुड़े ठोस चिंतन करनेवाले नेतृत्व की जरूरत है. शब्दों और नारों से खेलने वाला नेतृत्व हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकता. इन शब्दों से सतही चिंतन की गंध आती है. ऐसी गंध में जनतंत्र का दम घुटता है.