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सोचिए, नतीजों के पीछे विकास है या जाति
राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर आज दीपावली है. सुख और समृद्धि का त्योहार. हर कोई व्यस्त है. समय की कमी हर जगह है. न दुकानदार के पास समय है और न ही खरीदार के पास. बाजार भरा-पूरा है. जेबें भी भरी हैं; जिनकी जेबें खाली हैं वे भविष्य में समृद्धि की आस में 11 […]
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
आज दीपावली है. सुख और समृद्धि का त्योहार. हर कोई व्यस्त है. समय की कमी हर जगह है. न दुकानदार के पास समय है और न ही खरीदार के पास. बाजार भरा-पूरा है. जेबें भी भरी हैं; जिनकी जेबें खाली हैं वे भविष्य में समृद्धि की आस में 11 रुपये में 10 रुपये के भाव पर वर्तमान की इच्छाएं पूरी कर लेने को आतुर हैं. इनमें से सोच कोई नहीं रहा.
अगर कोई सोच रहा है तो देश का वह तबका, जो अभी इस बाजार से कोसों दूर है. जो सामाजिक सीढ़ी में नीचे का हिस्सा है. ऊपर वाले यदि लखखड़ाएं, तो भी सबसे ज्यादा बोझ इसी तबके को उठाना पड़ता है. जो लड़खड़ा कर ऊपर से गिरेगा, वह संभलने के लिए तेजी से अपने पैर इन्हीं पर जमायेगा. यही होता रहा है. अर्थव्यवस्था का घाटा कम करने के लिए बड़े उद्यमियों व उद्योगों की सब्सिडी पर नहीं, नीचे के लोगों की सब्सिडी पर ही मार पड़ती है.
पिछले दिनों पर नजर डालें, तो मनरेगा में कटौती हुई, शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए बजट रेशियो कम हुआ, आदि. दालें महंगी हुईं, तो किसकी दाल की कटोरी छोटी हुई और यह किसकी झोली में समृद्धि में तब्दील होती जा रही है? अब इस आर्थिक समृद्धि और दरिद्रता को सामाजिक सीढ़ी के बरक्स रख कर देखिए. बिहार विधानसभा चुनाव में विभिन्न गंठबंधनों, खासकर एनडीए और महागंठबंधन, के प्रचार अभियान पर बारीकी से नजर डालिए और चुनाव नतीजों को इससे जोड़ कर देखिए और सोचिए.
चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत विकास के नारे के साथ हुई. महागंठबंधन की ओर से नारा आया ‘आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ और एनडीए की ओर से नारा दिया गया ‘परिवर्तन पथ पर चला बिहार, अबकी बार भाजपा सरकार.’ बिहार में पिछले 10 साल में आये परिवर्तन को कोई खारिज नहीं कर सकता. सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, महिला सशक्तीकरण, कानून-व्यवस्था आदि के मामले में कोई भी व्यक्ति सकारात्मक बदलाव महसूस कर सकता है. दूसरी तरफ, 2014 के आम चुनाव में भाजपा द्वारा किये गये वादों को याद करिये.
लोगों ने उन वादों में अपनी आकांक्षाओं का अक्स देखा और वोट दिये. आज सरकार बनने के डेढ़ साल बाद, उन वादों में से कितने धरातल पर उतरते दिखाई दिये? रुपया तब के मुकाबले और कमजोर है, पेट्रोल दुनिया में तो बहुत सस्ता हो गया, लेकिन हमारे लिए पेट्रोल की कीमतों में कोई खास अंतर नहीं आया. मोबाइल पर एक कॉल में बात नहीं हो पाती, मोबाइल का बिल महंगा हो गया. खाने-पीने की चीजों की कीमतें दोगुनी तक बढ़ गयीं. साथ में बढ़ा सर्विस टैक्स भी. रोजगार, शिक्षा, निवेश आदि के मोर्चे पर सतह पर कुछ नहीं दिख रहा है. शैक्षणिक व एक्सीलेंस की संस्थाओं के मुखिया के रूप में जिन लोगों को बिठाया गया, उनको वहां के शिक्षार्थी ही दोयम दर्जे का मानते हैं.
यहां भी उम्मीद धुंधली हो गयी. दादरी कांड, उस पर भाजपा सांसदों, विधायकों व मंत्रियों की आपत्तिजनक टिप्पणी, पांचजन्य में गोमांस खानेवाले की हत्या का प्रावधान वाला लेख, हरियाणा का दलित कांड और उस पर मंत्री वीके सिंह की टिप्पणी, स्याही पोतने जैसी घटनाएं और इन घटनाओं पर देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री की कई दिनों तक चुप्पी.
इस पृष्ठभूमि में दोनों नारों को रखिए और बिहार के नतीजों का खुद वस्तुपरक विश्लेषण कीजिए और खोजिए कि वोट विकास को गये या जाति को?
सोचिए कि देश और बिहार में सामाजिक और आर्थिक असमानताकी स्थिति क्या है? 1990 में जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का फैसला हुआ, तो कौन लोग इसका विरोध कर रहे थे?
सोचिए कि सामाजिक आधार को हटा कर आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था की बात कौन करते हैं? सोचिए यदि यह व्यवस्था लागू हो जाये, तो कौन सबसे ज्यादा फायदे और कौन सबसे ज्यादा नुकसान में रहेगा? क्या यह व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक असमानता को पाटनेवाली होगी या उसे और चौड़ा करनेवाली? सोचिए, हमारे देश और खासकर बिहार में असमानता की खाई पाटने से विकास-सुख-समृद्धि आयेगी या चौड़ा करने से?
आरएसएस प्रमुख का आर्थिक आरक्षण को समर्थन देना क्या पूरे समाज को आगे बढ़ाने की दिशा में है या फिर खाई को चौड़ा करने की दिशा में? फिर आखिरी दो-तीन चरणों के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री व भाजपा अध्यक्ष के आरक्षण को लेकर बयानों पर भी सोचिए. सोचिए कि प्रधानमंत्री ने खुद को पहले पिछड़ा और फिर अति पिछड़ा व दलित वर्ग का होने की बात भाषणों में क्यों कही?
सोचिए कि किसी भी समुदाय के पिछड़ों को आगे बढ़ाने की व्यवस्था की बात करना क्या समाज के हित में नहीं मानी जानी चाहिए? सोचिए, दोनों गंठबंधनों में जाति का गणित किसमें नहीं था? सोचिए, एक गंठबंधन का गणित चला, दूसरे का क्यों नहीं चला?
सोचिए, मजबूत आधार वाले क्षेत्रों में भी भाजपा या एनडीए क्यों पिछड़ गया? अब सोचिए कि बिहार के इन नतीजों के पीछे विकास का वोट है या जाति का?
और अंत में…
पढ़िए केदारनाथ सिंह की कविता ‘दीपदान’ जिसकी हर लाइन आपको सोचने पर मजबूर करेगी. दीपावली पर अशेष शुभकामनाएं!
जाना, फिर जाना/ उस तट पर भी जाकर दीया जला आना/ पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है/ उस उड़ते आंचल से गुड़हल की डाल/ बार-बार उलझ जाती है/ एक दीया वहां भी जलाना/ जाना, फिर जाना/ एक दीया वहां, जहां नयी-नयी दूबों ने कल्ले फोड़े हैं/ एक दीया वहां, जहां उस नन्हें गेंदे ने/ अभी-अभी पहली ही पंखुड़ी बस खोली है/ एक दीया उस लौकी के नीचे/ जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है/
एक दीया वहां, जहां गगरी रक्खी है/ एक दीया वहां, जहां बर्तन मंजने से/ गड्ढा-सा दिखता है/ एक दीया वहां, जहां अभी-अभी धुले/ नये चावल का गंधभरा पानी फैला है/ एक दीया उस घर में/ जहां नयी फसलों की गंध छटपटाती हैं/ एक दीया उस जंगले पर, जिससे/ दूर नदी की नाव अकसर दिख जाती हैं/एक दीया वहां, जहां झबरा बंधता है/ एक दीया वहां, जहां पियरी दुहती है/ एक दीया वहां, जहां अपना प्यारा झबरा/ दिन-दिन भर सोता है/ एक दीया उस पगडंडी पर/ जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है/ एक दीया उस चौराहे पर/ जो मन की सारी राहें/ विवश छीन लेता है.
एक दीया इस चौखट/ एक दीया उस ताखे/ एक दीया उस बरगद के तले जलाना/ जाना, फिर जाना/ उस तट पर भी जाकर दीया जला आना/ पर पहले अपना यह आंगन कुछ कहता है/ जाना, फिर जाना!
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