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विकास के एजेंडे पर लौटेंगे मोदी?

मोदी की तीक्ष्णता और प्रधानता के बोझ से दबे भाजपा नेता उन पत्थरों के नीचे से बाहर आने लगेंगे, जो उनके ऊपर पिछले लोकसभा चुनाव के समय से रखा हुआ है. वे अब अपना दखल बढ़ाना शुरू करेंगे. बिहारियों ने, जिन्हें हममें से बहुत लोग देहाती और पिछड़ा मानते हैं, उस घृणा और दुर्भावना को […]

मोदी की तीक्ष्णता और प्रधानता के बोझ से दबे भाजपा नेता उन पत्थरों के नीचे से बाहर आने लगेंगे, जो उनके ऊपर पिछले लोकसभा चुनाव के समय से रखा हुआ है. वे अब अपना दखल बढ़ाना शुरू करेंगे.

बिहारियों ने, जिन्हें हममें से बहुत लोग देहाती और पिछड़ा मानते हैं, उस घृणा और दुर्भावना को खारिज कर दिया है जिसके सामने हममें से बहुत लोग नतमस्तक हो चुके हैं. यह इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. सांप्रदायिकता पर आधारित रथ की अनिवार्य प्रतीत होती यात्रा अब संदेह के घेरे में है. अश्लील (मैं इस शब्द- वल्गर- का प्रयोग उसके लैटिन अर्थ में कर रहा हूं जिसका अर्थ अपरिष्कृत लोकप्रियता होता है) बतकही, जिससे बिहार से बाहर रहनेवाले अनेक भारतीय परेशान थे, को पराजय मिली है.
इस मुद्दे पर दिलचस्पी रखनेवाले पर्यवेक्षक के सामने दूसरी बात यह हैः अब प्रधानमंत्री मोदी किस तरह से शासन करेंगे? बिहार के चुनाव प्रचार में उन्होंने अति अभद्र भाषा का प्रयोग किया. उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार के डीएनए में कुछ गड़बड़ी है, उन्होंने कहा कि लालू यादव शैतान हैं, उन्होंने दोनों बिहारियों और राहुल गांधी को थ्री इडियट कहा.अब इस दौर के बाद मोदी किस प्रकार अपने विकास के एजेंडे पर वापस जा सकेंगे, क्योंकि उन्हें बड़े राज्यों के उन्हीं मुख्यमंत्रियों को साथ लेकर चलना है, जिन्हें वे अनावश्यक रूप से अपना दुश्मन बनाये जा रहे हैं?

तीसरी बात : क्या पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जा रहे हैं? इस चुनाव में की गयी ऐसी शरारतें शायद ही इससे पहले राष्ट्रीय राजनीति में देखी गयी थीं. हम जानते हैं कि बड़ी पार्टी धर्म का दुरुपयोग करती है. वर्षों तक कांग्रेस ऐसा करती रही थी. पर जिस कड़वाहट व कटुता का भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने इस बहस में इस्तेमाल किया है, उसके दीर्घकालीन कुप्रभाव हमारे सौहार्द पर पड़ेंगे. जमीनी स्तर पर शाह और मोदी की तरह ऐसे विषवमन का प्रसार कर आप नहीं सोच सकते हैं कि स्थिति फिर से सामान्य हो जायेगी. इसकी कीमत भारत को चुकानी होगी.

चौथी बात : भाजपा की यह हार उसके सहयोगियों को हौसला देगी और वे अधिक मुखर होंगे. देखना उल्लेखनीय है कि इतने सारे लोग इसे पूर्व जनता दल के हिस्सों की जीत के साथ मोदी की हार के रूप में भी देख रहे हैं. शिवसेना, जो कमजोर समयों में सहयोगी पर हमला करने के लिए हमेशा तैयार रहती है, ने कहा है कि राज्य के चुनाव में अपने व्यवहार से प्रधानमंत्री ने अपनी गरिमा गिरा दी है, और उन्हें स्वयं पर काबू रखने की जरूरत है. इन बयानों से असहमत हो पाना मुश्किल है.

पांचवीं बात : रविवार को लालकृष्ण आडवाणी का 88वां जन्मदिन था. उन्हें एक शानदार तोहफा दिया गया. मोदी ने अलग-अलग तीन ट्विटों में उन्हें ‘बेहतरीन शिक्षक’ और ‘निस्वार्थ सेवा का शीर्ष उदाहरण’ बताया. लेकिन मेरी रुचि इसमें नहीं है. क्या आडवाणी अपने द्वारा बनायी गयी पार्टी में फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं? मोदी की तीक्ष्णता और प्रधानता के बोझ से दबे भाजपा के लोग उन पत्थरों के नीचे से बाहर आने लगेंगे, जो उनके ऊपर पिछले लोकसभा चुनाव के समय से रखा हुआ है. राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज और अन्य नेता जो दो साल पहले तक अपने को मोदी के समकक्ष मान रहे थे, अब प्रधान के इशारे से हटनेवाले नहीं हैं. वे अपना दखल बढ़ाना शुरू करेंगे, खुली चुनौती के रूप में नहीं, पर इसकी कहानियां बहुत जल्दी बाहर आनी शुरू हो जायेंगी. शत्रुघन सिन्हा जैसे कनिष्ठ नेता खुलेआम विरोध में बोल रहे हैं. प्रधानमंत्री का भय अब बिखरना शुरू हो चुका है और अब माहौल को अपने अनुकूल बनाने की जिम्मेवारी उनकी ही है.

छठी बात : राष्ट्रीय राजनीति में बिहार का असर नकारात्मक होगा.विधेयकों को रोका जायेगा और जीत से उत्साहित कांग्रेस आक्रामक रूप से बाधक होगी. भाजपा द्वारा लायी गयी हर बात को विपक्ष द्वारा आंख मूंद कर विरोध जारी रहेगा.
सातवीं बात : इस बार एक्जिट पोल गलत साबित हुए. सामान्यतः सही आकलन करनेवाला टूडेज चाणक्या ने उलटा ही आंकड़ा दे दिया और उसने भाजपा गठबंधन को 150 से अधिक सीटें मिलने की संभावना जतायी थी. एनडीटीवी द्वारा 67 हजार सैंपलों के आधार पर दिया गया नतीजा भी गलत साबित हुआ. यह आंकड़ा इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है कि अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव में नियमित रूप से करीब 900 सैंपलों पर अनुमान जारी होते हैं.

आठवीं बात : जिस तरह से परिणाम घोषित हुए, उससे मीडिया की, खासकर लापरवाह और अगंभीर रवैये के साथ डेटा का विश्लेषण करने की, कमजोरी ढंग से उजागर हो गयी. सुबह की शुरुआत समूचे राज्य में भाजपा की भारी जीत के साथ हुई थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सेना में कार्यरत लोगों जैसे मध्यवर्गीय समूह भाजपा के साथ थे. इसे भारी जीत की संज्ञा दी गयी और इस विश्लेषण को कुछ वरिष्ठ पत्रकार नेतृत्व दे रहे थे. उन्होंने नीतीश कुमार की भारी चूकों की गिनती भी शुरू कर दी.
नौवीं बात : चुनावी राजनीति में हिंदुत्व और उसकी भूमिका पर भाजपा और आरएसएस में आंतरिक चर्चा होगी. हिंदू बहुलतावाद की पैरोकार ताकतें अपने बातों को शब्दाडंबर के जरिये बयान करने में काफी सक्षम और प्रभावशाली हैं. मीडिया में उनसे सहानुभूति रखनेवाले लोगों से हमें जल्दी ही पता चल जायेगा कि उनका व्यापक आंदोलन किस दिशा में जा रहा है, वह अधिक कटु और असंतुष्ट होगा या फिर वास्तविक राष्ट्रीय हितों की ओर उन्मुख होगा.

दसवीं बात : बड़ी संख्या में मतदान होना इस बात का संकेत भी है कि यह मोदी पर एक छोटा जनमत-संग्रह था. हमें नहीं लगता है कि वे बिहारियों में 2014 के चुनाव की अपनी छवि को कायम रखने में सफल रहे हैं.

ग्यारहवीं बात : जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद कहते रहे हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में अगले एक दशक तक मोदी का कोई विकल्प नहीं है. यह कहा जा सकता है कि उनकी सरकार के भाजपा के समर्थन पर टिके होने के कारण वे ऐसा कह रहे हैं, पर मुझे लगता है कि वे सही कह रहे हैं. जो इस बात से सहमत नहीं है या इसे नापसंद करते हैं, वे भी इस तथ्य के साथ जीने के लिए मजबूर हैं कि मोदी इस देश के सबसे भरोसेमंद, ऊर्जावान और प्रतिभाशाली राजनेता हैं, और ऐसा उनकी सबसे बड़ी हार के क्षण में सही है (यह उनकी सबसे बड़ी हार है). उन्हें अब इस दिशा में काम करना है कि कैसे इस हार को किनारे कर वे अपनी सरकार के एजेंडे से जुड़ी चीजों पर काम करना शुरू करते हैं. नाउम्मीदी में ही सही, पर यह उम्मीद की जा सकती है कि वे चीजें हम क्या खाते हैं और किस धर्म में आस्था रखते हैं जैसी बातों से संबंधित नहीं होंगी.


आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
aakar.patel@me.com

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