नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के ताजा आंकड़ों को मायूस करनेवाली खबरों के मौसम में, एक राहत देनेवाली आमद माना जा सकता है. एनएसएसओ का कहना है कि 2009-10 से पहले के पांच वर्षो में भारत के शहरों और कस्बों में बेरोजगारी के स्तर में पर्याप्त कमी देखी गयी है.
इन पांच वर्षो में बेरोजगारी दर 3.8 फीसदी से घट कर 2.8 फीसदी रह गयी. यह आंकड़ा 2009-10 से पहले के सात–आठ वर्षो में भारत की तेज आर्थिक वृद्धि का परिणाम कहा जा सकता है. 2003-04 से 2009-10 तक भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के उड़नखटोले पर आकाश की ऊंचाइयां नाप रही थी.
इस दौर में औद्योगिक वृद्धि दर और सेवा क्षेत्र में वृद्धि की दर भी काफी ऊंची थी. जाहिर है, इस वृद्धि दर का असर रोजगार पर भी कहीं न कहीं दिखना था. वर्ष 2005 से चरणबद्ध तरीके से राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को लागू किये जाने का असर भी इस आंकड़े पर परोक्ष तौर पर देखा जा सकता है. यह एक मान्य समझ है कि काम के अधिकार को लागू करने के बाद गांवों से शहरों की ओर पलायन कम हुआ.
निश्चित तौर पर इसने भी बेरोजगारी की कम दर में कमी लाने में अपनी भूमिका निभायी है. वैसे, बेरोजगारी की दर में क्षेत्रीय अंतर को भी साफ देखा जा सकता है. एक तरफ आगरा, लुधियाना, मेरठ जैसे शहर हैं, जहां बेरोजगारी की दर इस अवधि में कम होने की जगह बढ़ गयी, वहीं पटना और कानपुर जैसे प्रमुख शहरों में बेरोजगारी की दर उच्च स्तर पर बनी रही.
जाहिर है, अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि और गांवों से पलायन में कमी का असर सभी शहरों पर एक जैसा नहीं पड़ा. इसके पीछे की वजहों का विेषण किया जाना चाहिए. एनएसएसओ के इन आंकड़ों को जरूर से एक सकारात्मक खबर माना जाना चाहिए, लेकिन यहां यह भी याद रखना चाहिए, कि इन आंकड़ों की संदर्भ अवधि के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति की रफ्तार मंद पड़ गयी है और यह 60-70 के दशक की ‘हिंदू विकास दर’ के करीब पहुंच गयी है.
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को लेकर भी इस अवधि में कई शिकायतें सामने आयी हैं. ऐसे में, यह यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि शहरों में कम हुई बेरोजगारी का यह आंकड़ा वर्तमान परिदृश्य पर भी लागू हो.