हम अकसर अपने आसपास हो रहे छोटे, लेकिन अहम बदलावों से बेपरवाह रहते हैं. पिछले 20 वर्षो में ऐसा ही एक बदलाव आया है हमारे शहरों में साइकिल चलानेवालों के जीवन में. महानगरों में कारों और मोटरसाइकिलों की बढ़ती संख्या के बीच साइकिल चालकों की संख्या कितनी घट गयी है और उनकी परेशानियां किस कदर बढ़ गयी हैं, इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता.
साइकिल चलानेवाले आम लोग, जो अकसर दैनिक मजदूरी या किसी कंपनी कारखाने में छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, की परेशानियों के प्रति संवेदनशील रुख अपनाने की जगह हम उन्हें शहर की तेज रफ्तार में अनावश्यक अवरोध के तौर पर देखते हैं. ऐसे में आश्चर्य क्या कि देश की राजधानी दिल्ली, जो अपने नये बने फ्लाइओवरों और सिगनल फ्री तेज रफ्तार ट्रैफिक पर मुग्ध दिखती है, अपनी सड़कों पर हर महीने औसतन आठ साइकिल सवारों की मौत का साक्षी बनती है. दुखद यह है कि ये मौतें अकसर न खबर बनती हैं, न राष्ट्रीय बहस का विषय. ऐसे माहौल में देश की प्रख्यात पर्यावरणविद् सुनीता नारायण की साइकिल से सुबह की सैर करते वक्त एक तेज रफ्तार कार से दुर्घटना की खबर हमें एक लंबी नींद से जागने का संदेश लेकर आयी है.
सुनीता नारायण खतरे से बाहर हैं, लेकिन साइकिल सवारों पर खतरा ज्यों-का-त्यों बना हुआ है. एक शोध के अनुसार देश में होनेवाले सड़क हादसों में जान गंवानेवालों में से आधे से ज्यादा लोग सड़क पर पैदल या साइकिल से चलनेवाले होते हैं. आंकड़े बताते हैं कि सड़क दुर्घटनाओं में सालाना 8 फीसदी की दर से वृद्धि हो रही है. क्या यह महज संयोग है कि देश में कारों की बिक्री भी लगभग इसी दर से बढ़ रही है?
असल में हमारे शहरों के विकास का जो मॉडल बनाया गया है, उसमें साइकिल पर या पैदल चलनेवालों के लिए कोई जगह नहीं है. इसका इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि फ्लाइओवरों ही नहीं, महानगरों की ज्यादातर नयी सड़कों पर भी साइकिल या पैदल राहगीरों के लिए कोई लेन नहीं है. ऐसे में हैरानी क्या कि साइकिल सवार खुद को भारतीय शहरों में बेगाना महसूस करते हैं और ईश्वर से सलामती की दुआ मांगते हुए हर दिन घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक की यात्रा पर निकलते हैं!