चंचल
सामाजिक कार्यकर्ता
‘…….. हम कहां से चले थे, कहां जाना था, अचानक एक मोड़ आया और हम इंसान की बुनियादी पहचान से ही कन्नी काटने लगे. हमारी आजादी की नींव में सत्य है और अहिंसा है. अभी दादरी के एक छोटे से गांव में कायर, दब्बू और सोच से अपाहिज एक खेल रचा गया कि अखलाक नामक एक शख्स के घर में गाय का मांस बना है.
बस. इतना काफी था. भीड़ टूट पड़ी. अखलाक का घर तोड़ा गया, बेरहमी से सब को मारा-पीटा गया. अखलाक की मौत मौका-ए-वारदात पर हो गयी, उनका लड़का अस्पताल में मौत से लड़ रहा है.
घटना को ‘स्वाभाविक’ प्रतिक्रया कह कर केंद्रीय मंत्री तक बचाव में उतर आये हैं. आजादी के साथ इतने साल बाद हम घूम कर बर्बर समाज की ओर बढ़ने लगे हैं. कह कर चिखुरी ने लंबी सांस ली और दूर अनंत में उनकी आंखें थम गयीं. लाल साहब की चाय की दुकान, जो गांव की संसद बन चुकी है, पर जुटे तमाम सदस्यों ने अरसे बाद चिखुरी को इतना संजीदा और दुखी देखा.
कयूम मियां सर झुकाये बैठे रहे. उमर दरजी जो कभी भी अपने को असुरक्षित नहीं समझता, बड़ी बेबाक जिंदगी काट रहा है थोड़ा चिंतित दिखा. नवल उपाधिया ने यह भांप लिया – “देख उमर अगर तैं हमरे साथे न पढ़े रहते औ पधत वक्त एकै गठरी में बैठ के चबैना न खाए रहित तो तोको आजै मुलुक निकाला दे देइत समझे.”
उमर दरजी दादरी से निकल आये और गांव के उस माहौल में खड़े हो गये, जहां इस तरह की तू-तू मैं-मैं होती रहती है. उमर ने बढ़ कर नवल की गर्दन पकड़ लिया -“इ अकेल्ले तोरे बाप का मुल्क है का? इ मुल्क मरहूम हीरामणि उपाध्याय वल्द विद्याधर उपाध्याय बना के गए हैं का कि नवल जब मन करे किसी को भी मुल्क बदर कर देगा? सुन नवल, इ मुल्क बनावे में जितनि मेहनत तै किहे अहे ओसे ज्यादा हमार है, समझे? पूछो हमार ज्यादा कैसे? पूछो तो बताता हूं.
तीन कलम के आगे त पढ़े ना, का जानबे इ सब. गाजीपुर में एक गांव है गंगौली. उहां एक लेखक पैदा भये रहे राही मासूम रजा. जे महाभारत लिखे रहे टीवी वास्ते. एक बार किसी पत्रकार ने पूछा रहा उनसे यही सवाल जो तुम बोल रहे हो.
जवाब का रहा मालुम है, जवाब रहा – सुन हिंदू के बच्चे! मुल्क बटवारे के समय हमारे सामने दो ‘आप्सन’ थे हम हियां रहते या फिर पाकिस्तान जाते. हमने यहीं रहने का फैसला किया. तुम्हारे सामने कोइ आप्सन ही नहीं था तुम्हे तो यहीं रहना ही था. देश से मोहब्बत करनेवाले हम हैं कि तुम? समझे नवल. औ ज्यादा बोलबे त नोटा …. और सारा माहौल बदल गया. कीन उपाधिया जन्म के संघी, जब कुछ नहीं पाते तो गोधरा पहुंच जाते हैं लेकिन अब वह रिकार्ड इतना घिस गया है कि कोई सुनने को राजी नहीं. चुनांचे बात चली गयी बिहार.
मद्दू पत्रकार ने अपने पसंदीदा विषय को उठा लिया – “चिखुरी काका! कितने कमअक्ल लोग आ गये और इतनी बेशर्मी के साथ कि धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करने के लिए कितना भी गिर जायेंगे लेकिन शर्म नहीं लगेगी. हिंदू एक तरफ हो जाओ, मुसलमान एक तरफ. एक झटके में गुजरात में तो चल गया लेकिन काठ की हांडी अब नहीं चढ़ने वाली. यह बिहार है. राजनीति में सांस लेता है, उसी में उठता बैठता है.
उसी में झूमर और सोहर गाता है. उसे ये काली दाढ़ी और सफेद दाढ़ी नहीं समझ पाये हैं न ही आखीर तक समझ पायेंगे. अब बताईये मांस का एक लोथड़ा उनकी चुनाव सामग्री बन रही. गो मांस. इन कमबख्तों को इत्ता भी नहीं मालुम यह प्रतिबंधित नहीं है. यह मुल्क इसका बड़ा निर्याता है. इस सरकार यह निर्यात बढ़ा भी है. पश्चिमी देशों का यह प्रिय पदार्थ है. एक तरफ उन्हें गले लगाओगे, उनके लिए बिछे पड़े रहोगे.
दूसरी तरफ एक अफवाह को उड़ा कर कत्ल जैसे घटिया काम में लग जाओगे. पूर्वोत्तर राज्यों को देखो, उनसे बात तो करो. गोवा में जाकर देखो वहां तो तुम्हारी ही सरकार है. जाओ कत्ल कर के देखो ….. नवल से नहीं रहा गया – एक बात बता बकरे का मांस और गो मांस का फर्क करेगा यह पुजारी जिसने बदअमनी फैलायी है? चू … मुर्गी और मुर्गे के मांस में तो फर्क करी नहीं सकते चले हैं गो मांस पहचानने?
हम तो एक बात कह रहे हैं डंके की चोट पे सुन ले कीन .. बिहार पहले भिगोये, फिर धोबिया लदान मारे, निचोड़ के सुखेवास्ते दारा पे डालदेई कि कलकता की डगर भूल जाबे. समझे? कहकर नवल गाते हुए आगे बढ़ गए-लागा झुलनिया क धक्का, बलम. ”