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यूएइ और भारत, दोनों के लिए मौका-मौका
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार संसदीय गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूएइ यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर पूंजी निवेश, इन्फ्रास्ट्रर के क्षेत्र में निर्माण की संभावनाओं और खाड़ी के देशों में रहनेवाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
संसदीय गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूएइ यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर पूंजी निवेश, इन्फ्रास्ट्रर के क्षेत्र में निर्माण की संभावनाओं और खाड़ी के देशों में रहनेवाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे.
पर, इसका महत्व केवल इतना ही नहीं है. पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था?
इस इलाके में हाल में तीन महत्वपूर्ण बातें हुई हैं. पहली, इराक और सीरिया में आइएसआइएस का उदय. दूसरी, यमन में हूती बगावत और पाकिस्तान-यूएइ रिश्तों में पैदा हुआ तनाव. तीसरी, ईरान के साथ अमेरिका का न्यूक्लियर डील. परंपरा से पश्चिम एशिया के देशों के साथ भारत के रिश्ते अच्छे रहे हैं, पर इनमें पाकिस्तान आड़े आता है. धार्मिक भाईचारे के नाम पर पाकिस्तान इन रिश्तों को प्रभावित करने में कामयाब होता रहा है.
अकसर भारत की उचित शिकायतें भी अरब देशों तक ठीक तरीके से नहीं पहुंच पाती थीं. लेकिन, भारत और यूएइ के संयुक्त घोषणापत्र में जिस तरह आतंकवाद को धार्मिक रंग देने की कोशिशों की निंदा की गयी है, यह बात बदलती मनोदशा का परिचय देती है.
यूएइ अपेक्षाकृत आधुनिक देश है और उसकी दिलचस्पी अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने में है.धार्मिक संकीर्णता का दुष्परिणाम वह पाकिस्तान में देख चुका है. यूएइ में तकरीबन 26 लाख भारतीय रहते हैं, जो उस देश की आबादी का तकरीबन एक तिहाई है. अब यूएइ से भारत में पूंजी निवेश की बेहतर संभावनाएं तैयार हो रहीं हैं. सिंगापुर और हांगकांग की तरह दुबई पश्चिम एशिया का सबसे बड़ा व आधुनिक व्यापार केंद्र है. यहां दुनियाभर के समुदायों का प्रतिनिधित्व है.
व्यापारी समुदाय के अलावा यहां भारतीय इंजीनियरों, डॉक्टरों, मैनेजरों और शारीरिक श्रम करनेवाले छोटे मजदूरों की बड़ी संख्या है. भारत के प्रति इस इलाके में स्वाभाविक सद्भाव पहले से मौजूद है. हालांकि हाल में बढ़ती हिंसा के कारण यहां के लोग अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं.
अरब देश अपनी अर्थव्यवस्था के लिए पेट्रोलियम अलावा दूसरे विकल्प भी तलाश रहे हैं. ऐसे में भारत उनके लिए दो कारणों से महत्वपूर्ण है. एक, भविष्य में वह उनकी आर्थिक गतिविधियों में मददगार होगा, जहां वे पूंजी निवेश कर सकते हैं. दूसरे भारत उन्हें सुरक्षा प्रदान कर सकता है. अंगरेजी राज के समय से ही भारत इस इलाके को सुरक्षा प्रदान करने का काम करता रहा है. हाल में लीबिया से लेकर यमन तक में सुरक्षा को लेकर कुछ खतरनाक संकेत उभरे हैं.
हाल के वर्षो में भारत ने अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग के समझौते किये हैं. साथ ही इसरायल के साथ भी रिश्ते सुधारे हैं. देखना होगा कि एक तरफ इसरायल, दूसरी तरफ अरब देशों और तीसरी तरफ ईरान के साथ रिश्तों का संतुलन किस प्रकार बनेगा. भारत की पश्चिम एशिया नीति प्रारंभिक वर्षो में मिस्र के साथ दोस्ती के रूप में थी.
1950 के दशक में मिस्र के राष्ट्राध्यक्ष नासर भारत के दोस्त माने जाते थे. फिलस्तीनी आंदोलन के नेता यासर अरफात भी हमारे दोस्त थे. इराक के सद्दाम हुसैन भी भारत के मित्र थे. सीरिया के हफीज अल असद और बाद में उनके बेटे बशर अल असद के साथ भी हमारे रिश्ते अच्छे हैं.
हमारे सबसे रोचक रिश्ते सऊदी अरब के साथ हैं. इस महीने के पहले हफ्ते में भारतीय वायुसेना के सुखोई-30 एमकेआई, सी-17 ग्लोब मास्टर और सी-130 सुपर हक्यरुलिस और आईएल-78 विमानों के दस्ते जब सऊदी अरब के तैफ स्थित किंग फहद एयर बेस पर पहली बार उतरे, तब किसी ने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. एयरफोर्स के ये दस्ते ब्रिटेन में एक हवाई युद्धाभ्यास में भाग लेकर लौट रहे थे. इसके पहले भारतीय मालवाहक विमान तो सऊदी अरब में उतरते रहे हैं. यह पहला मौका था जब फाइटर विमान वहां उतरे. वायुसेना के इस दल में 100 के आसपास अफसर और सैनिक थे.
यह सांकेतिक सहयोग था. भारतीय दस्ते किसी दूसरे देश में भी उतर सकते थे. उनका सऊदी अरब में उतरना महत्वपूर्ण है. भारत का इस इलाके में सऊदी अरब के साथ रक्षा समझौता भी है, जिसकी शर्तो के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. इसी तरह 2008 में भारत ने कतर के साथ रक्षा समझौता किया था. ऐसा ही एक समझौता बहरीन के साथ होने की संभावना है.
पिछले दिनों यमन के हूती विद्रोहियों के खिलाफ सैनिक मदद को लेकर अरब देशों के पाकिस्तान के साथ रिश्तों में खटास आयी है. कहा जा रहा है कि मोदी की अचानक हुई यूएइ यात्रा की वजह यही है.
अमेरिका के साथ हुए ईरान के न्यूक्लियर डील का असर भी इस इलाके में नजर आयेगा. इस महीने ईरान के विदेश मंत्री डॉक्टर जवाद जरीफ लेबनान, सीरिया और पाकिस्तान होते हुए भारत यात्रा पर आये थे. ईरान इस इलाके के देशों के साथ अपने रिश्ते फिर से परिभाषित कर रहा है.
दूसरे देश भी ईरान के साथ रिश्तों को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं. पाकिस्तान चाहता है कि चीन की मदद से बन रहा उसका पाकिस्तान-चीन कॉरिडोर ईरान तक जाये. इधर, ईरान और अफगानिस्तान के साथ भारत त्रिपक्षीय समझौता करना चाहता है.
इसके तहत ईरान के चहबहार बंदरगाह का विकास भारत करेगा, जहां से अफगानिस्तान तक माल का आवागमन सड़क मार्ग से होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने ईरान की सीमा से होकर 215 किमी लंबे डेलाराम-जाराज मार्ग का निर्माण अफगानिस्तान में किया है, जो निमरोज प्रांत की पहली पक्की सड़क है. इस परियोजना पर भारत ने करीब 750 करोड़ रुपये लगाये हैं. भारत के लिए यह मध्य एशिया से जुड़ने का जरिया बनेगा.
अफगानिस्तान के साथ पाक के रास्ते संपर्क अभी संभव नहीं है. ऐसे में देखना होगा कि भारत और ईरान के रिश्ते अब क्या शक्ल लेते हैं. यह भी ध्यान में रखना होगा कि इस इलाके में रूस और चीन की दिलचस्पी बढ़ी है. अमेरिका के साथ ईरान का समझौता कराने में चीन व रूस की अहम भूमिका थी.
भारत और संयुक्त अरब अमीरात 75 अरब डॉलर का इंफ्रास्ट्रर कोष तैयार करेंगे, जो भारतीय परियोजनाओं के लिए पूंजी उपलब्ध कराएंगे. इनके अलावा देश के रक्षा उद्योग, स्पेस टेक्नोलॉजी और न्यूक्लियर इनर्जी की परियोजनाओं के लिए भी पूंजी निवेश के रास्ते खोले गये हैं.
यूएइ आनेवाले समय में पेट्रोलियम के अलावा नये क्षेत्रों में पूंजी निवेश की संभावनाएं तलाश रहा है. भारत को पूंजी और तकनीक दोनों चाहिए. तो दोनों के लिए है, मौका-मौका!
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