।।कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
क्या जमाना आ गया है भई. भाईचारा नाम की चीज न रही दुनिया में. पीड़ित का पता नहीं और अभियुक्त को मिल जाती है सजा. भगवान तुम्हारी दुनिया में ईशनिंदा वाले केस में ही ऐसा होता रहा है. किसी ने ऊपरवाले की निंदा कर दी, तो फटकार ऊपर से नहीं, पड़ोस से आती है. आधा सुना, आधा अनसुना, अपनी भावनाओं को आहत बता दूसरे को अंदर करवा दिया. जिसके खिलाफ बोला था, उसने कभी चूं नहीं की. न उसके समर्थन में, न अपने विरोध में. चिचियाने वाले चढ़ गये और ऐसे मामले बढ़ गये. लालूजी को ले लीजिए, जिनका पिछला पखवाड़ा केंद्रीय कारागार में बीत गया.
बैल लेते रहे जम्हाई, कोई गाय कभी न रम्हाई, किसी भैंस ने रपट नहीं करायी, तो फिर ये घोटाला हुआ कैसे भाई! बिहार में चारे की कमी थी क्या कि गायें सरकार से खाद्य सुरक्षा की गुहार करती? उन्मुक्त थीं, जहां चाहती, चरती. जुगाली करती. थोड़ा वो चरतीं, थोड़ा हम चरते. आपस की बात थी, आपस में करते. गाय-गोरू मस्त थे, नेता-अफसर व्यस्त थे. बजट में आवंटित रकम वंटित नहीं करते तो राज्य के बजट का अपमान हो जाता. घर आती लक्ष्मी को ना करना पाप है. सरस्वती की कृपा से कुर्सी मिली थी, उसका सदुपयोग ना करना अभिशाप. आपस में बांट लिया गाय की खुराक को, जैसे बांट लेते हैं बेटे पिता की संपत्ति. गाय हमारी माता है, उनकी संपत्ति में कुछ तो अपना भी आता है.
विधि का विधान देखिए, देश का संविधान देखिए. कानून की व्यवस्था है कि चारा खाकर गुजारा करनेवाले जेल में विचरते हैं. विरोधी कहते हैं कि ट्रेजरार ने ट्रेजरी को ही चूना लगाया. चौकीदार ही लूट ले गये खजाना. सरपट बकथोथरी है. चोर-उचक्के लूटते, उससे तो अच्छा था चौकीदार ले गया? खजाना है तो इक दिन जाना है. देश का, राज्य का, घर का या घाट का, खजाने की किस्मत में लुटना है.
राहुल कहते हैं कि संसद में अपराधियों का होना गलत है. अरे भैया अपराध में संलिप्त रहना कौन सा सही है? सड़क पर रहेंगे तो अपराध ही करेंगे न? अगर एक तिहाई सांसद अपराधी हैं, तो देश के लिए तो अच्छा है न, कि सौ से ऊपर अपराधियों से जनता को निजात है.
इन्क्लूसिव ग्रोथ की बात करते हैं, सबको साथ लेकर चलते हैं. मुलायम और माया को सीबीआइ से हर तीसरे दिन बचाते हैं, क्योंकि उनके बीस-बीस लोग संसद में काम आते हैं. लोकतंत्र तो माथे की गिनती का तंत्र है, मगज में किसके कितना भूसा है, उसे तौलता कौन है. भूसा गायों के लिए चारा है, जिसे चट करने का आरोप है. गायों तक को गायब कर जानेवाले पालथी मार बैठे हैं. राहुल जी को अठखेलियां सूझी हैं, लालूजी बेजार बैठे हैं. कभी अकेले सब पर बीस पड़ते थे. उन्नीस क्या हुए, भाईचारा भी गया. बीजेपी और नीतीश रार लेते तो पार लेते क्या? अच्छा-खासा अध्यादेश आधे रास्ते तक आ गया था. राहुल जी आये आड़े, अपनी सरकार को लताड़े, अध्यादेश फाड़े और फेंक दी. लोगों ने पप्पू समझा था, फेंकू निकले. पर जवानी की भूल या कहिए नयी पीढ़ी के उसूल, अध्यादेश फट गया, किस्मत फूट गयी. एनडीए वाले करते तो शिकवा न होता. यूपीए वाले घोंप गये पीठ में. लालूजी को अपनों ने लूटा, गैरों में कहां दम था. इनकी भैंसिया वहीं डूबी जहां पानी कम था. अध्यादेश की अधूरी कहानी में, गयी भैंस पानी में.
भाईचारे से चारे को निकाल दो तो बचता क्या है भाई? आप इधर राजनीति से अपराध निकालेंगे, उधर अपराध में राजनीति घुस जाएगी. अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है और राहुल की पीढ़ी राजनीति के अपराधीकरण के पीछे पड़ी है. यूपी के राजा भैया पुन: मंत्री बन गये. वह राजनीति में नहीं घुसे, राजनीति घुसी उनकी गोद में प्रोटेक्शन के लिए, फायदे के लिए. लालू अपराधी हों कायदे के लिए, पर उन्होंने राजनीति चुनी थी. अब तो लोग पहले अपराध में जा रहे हैं, वहां से राजनीति की चढ़ाई शुरू करते हैं. इस खेल में जेल भी आता है और बेल भी.
अपराध एक अमरबेल है, नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि, नैनं दहति पावक:. देश राजनीति से चलता है. राजनीति के पेड़ को नहीं सींचेंगे तो देश को आगे कैसे खींचेंगे! और अपराध की बेल उसी पेड़ से लिपट, चिपक कर ऊपर चढ़ेगा. यही बेल का चरित्र है. जड़ें उसकी उसी मिट्टी में हैं, जिसमें पेड़ की हैं. पर तना नहीं है कि तन कर विधान के आसमान की ओर सिर उठाये. उसे सहारा चाहिए होता है, एक अदद पेड़ का. पेड़ को पकड़ कर, अपनी लत्तड़ में जकड़ कर ही बेल आसमान को आंख दिखाता है. विधायिका तक में घुस कर बैठ जाता है. पेड़ में खुद खड़ा रहने की कूवत है, बेल में नहीं. पर ये बात पेड़ को कौन समझाये! उसकी आंखों पर बेल की पट्टी है, उसके कानों में बेल उग आये हैं! (आजतक.कॉम से साभार)