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श्रेष्ठ साहित्यिक कृति का कुपाठ
राजीव रंजन गिरि संपादक, अंतिम जन राष्ट्रगान पर एक बार फिर सवाल किया गया है. इस बार राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने शुरू किया है. वे राजस्थान विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि थे. उन्होंने राष्ट्रगान में मौजूद ‘अधिनायक’ शब्द पर आपत्ति जाहिर की. उनका मानना है कि ‘अधिनायक’ शब्द इंग्लैंड के बादशाह […]
राजीव रंजन गिरि
संपादक, अंतिम जन
राष्ट्रगान पर एक बार फिर सवाल किया गया है. इस बार राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने शुरू किया है. वे राजस्थान विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि थे. उन्होंने राष्ट्रगान में मौजूद ‘अधिनायक’ शब्द पर आपत्ति जाहिर की. उनका मानना है कि ‘अधिनायक’ शब्द इंग्लैंड के बादशाह जार्ज पंचम को संबोधित है, इसलिए यह शब्द हटा देना चाहिए. इसके स्थान पर ‘मंगल’ शब्द जोड़ देना चाहिए. पहले भी राष्ट्रगान पर कई लोगों ने सवाल खड़े किये हैं.
कवि गुरु रबींद्रनाथ टैगोर ने जन गण मन की रचना 1911 में की थी. 1911 में देश की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित की गयी. इस अवसर पर भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ था, जिसमें ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पंचम मौजूद थे. कुछ दिनों के बाद कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन होनेवाला था.
सम्राट समर्थक कांग्रेस के लोगों की इच्छा थी कि अधिवेशन में जॉर्ज के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाये. टैगोर के मित्र सम्राट समर्थक आशुतोष चौधरी स्वागत-समारोह के एक कर्ता-धर्ता थे. चौधरी ने कवि-गुरु से एक गीत रचने की गुजारिश की.
टैगोर बेचैन हो गये. सम्राट पंचम की प्रशस्ति में गीत-रचना इनके कवि व्यक्तित्व के प्रतिकूल था. लेकिन चौधरी की गुजारिश ने जो मानसिक उत्पात पैदा किया, उसकी सर्जनात्मक प्रतिक्रिया में ‘जन गण मन’ की रचना हुई. पांच अंतरे के इस गीत में टैगोर ने उस शाश्वत सारथी की अभ्यर्थना की है, जो मानव की नियति का संचालनकर्ता है. 26 से 28 दिसंबर तक चले कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में दूसरे दिन यह गीत प्रस्तुत हुआ.
1937 में जब सुभाष चंद्र बोस ने इस गीत को राष्ट्रगान के रूप में प्रस्तावित किया, तब कुछ लोगों ने इसको जॉर्ज पंचम के साथ जोड़ कर आपत्ति जाहिर की. टैगोर और व्यथित हुए कि जिस गीत की रचना उन्होंने ब्रिटिश दासता के प्रतिवाद में भारत के जयगान के लिए की थी, उसका अभिप्रेत ब्रिटिश सम्राट को बताया जा रहा था.
जो लोग सवाल खड़ा कर रहे थे, उन्हें टैगोर ने अपरिमित मूढ़ माना. टैगोर का कवि मन इसलिए भी आहत था कि इस श्रेष्ठ साहित्यिक रचना का कुपाठ हो रहा था. एक कृति के तौर पर भी अगर कोई इस रचना को संपूर्णता में पढ़े, तो समझ सकता है कि इसमें किसकी अभ्यर्थना की गयी है.
यह गीत पहली बार ‘भारत विधाता’ शीर्षक से ‘तत्वबोधिनी’ पत्रिका में छपा था. उस पत्रिका में इसे ‘ब्रह्म संगीत’ कहा गया था. संविधान सभा में जब इस गीत के एक अंतरे के हिंदी अनुवाद को राष्ट्रगान की मान्यता दी जा रही थी, तब भी कुछ लोगों ने इसे जॉर्ज पंचम से जोड़ा था.
टैगोर की कविता के रसिक जानते हैं कि उनकी कविताओं में स्वदेश भक्ति और भगवद् भक्ति एक-दूसरे की पूरक हैं. उनकी रचनाओं की विशिष्टता को रेखांकित करनेवाले विद्वानों ने भी इस पहलू को बखूबी समझा है. इस गीत को जॉर्ज पंचम से जोड़नेवाले लोग न सिर्फ ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर रहे हैं, बल्कि इसकी संपूर्ण संरचना और स्थापत्य की भी उपेक्षा कर रहे हैं. साथ ही एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति का कुपाठ कर रहे हैं.
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