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इस जोखिम का नतीजा वक्त बतायेगा
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार चीन की ही तरह पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंधों में निकट भविष्य में किसी नाटकीय सुधार की आशा नहीं की जानी चाहिए. यह भी याद रखें कि चाहे किसी दल की सरकार हो, हर पड़ोसी के साथ संवाद जारी रखने की जरूरत बनी रहती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
चीन की ही तरह पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंधों में निकट भविष्य में किसी नाटकीय सुधार की आशा नहीं की जानी चाहिए. यह भी याद रखें कि चाहे किसी दल की सरकार हो, हर पड़ोसी के साथ संवाद जारी रखने की जरूरत बनी रहती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी ताबड़तोड़ विदेश यात्रओं के कारण लगातार चर्चा में हैं. हाल में संपन्न मध्य एशियाई देशों तथा रूस के उनके दौरे को लेकर विश्लेषकों की अपेक्षाकृत उदासीनता का कारण समझना कठिन नहीं. इस वक्त सुर्खियों में जो समाचार हैं, वे लगभग सभी आंतरिक राजनीति में भाजपा-एनडीए सरकार को संकोच में डालनेवाले हैं. कई आरोपों से घिरे ललित मोदी के सनसनीखेज खुलासों की वजह से विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अशोभनीय विवादों में घिरी हैं. उधर, महाराष्ट्र में पंकजा मुंडे पर भी अप्रत्याशित आरोप लगाये जा रहे हैं. मध्य प्रदेश से उपजा व्यापमं घोटाला तो सबसे ज्यादा असमंजस में डालनेवाला है.
स्वभाव से मुखर मोदी की लंबी चुप्पी का जिक्र करके यह सुझानेवालों की तादाद बढ़ती जा रही है कि इस वक्त विदेशों का रुख इसीलिए किया जा रहा है ताकि जवाबदेही और जिम्मेवारी को आरोपों की लपटें ठंडी होने तक टाला जा सके! मेरी राय में पहले से तय राजनयिक कार्यक्रम के बारे में दलगत पक्षधरता से ग्रस्त टिप्पणियां अक्लमंदी नहीं. हालांकि, यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मोदी की करिश्माई छवि को हाल के घटनाक्रमों ने निश्चय ही धूमिल किया है और इसका प्रभाव भारतीय राजनय और उसकी अंतरराष्ट्रीय क्षमता पर पड़े बिना नहीं रह सकता.
शुरू से ही इस बात को रेखांकित किया जाता रहा है कि कभी सोवियत साम्राज्य का हिस्सा रह चुके मध्य एशियाई गणराज्यों का रुख मोदी ने इसलिए किया है कि वह कट्टरपंथी इसलाम से प्रेरित दहशतगर्दी के ज्वार को रोकने के पुख्ता प्रबंध में जुटे हैं. एशिया का मर्मस्थल समङो जानेवाले उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाखिस्तान, किर्गिस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान की अतिसंवेदनशील भू-राजनीतिक स्थिति जगजाहिर है. रूस और चीन की सरहद को छूनेवाले ये राज्य ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक के सामरिक सरोकारों को प्रभावित कर सकते हैं.
इसके अतिरिक्त दुर्लभ खनिज संपदा और तेल-गैस भंडार के कारण भारत की ऊर्जा सुरक्षा के संदर्भ में भी ये महत्वपूर्ण हैं. सुदूर पूर्वी एशिया और सदैव अस्थिर विस्फोटक पश्चिम एशिया/ अरब जगत को जोड़नेवाले इस विस्तारित भूभाग की अनदेखी हम नहीं कर सकते. इसलिए भारतीय प्रधानमंत्री की इस विदेश यात्र का मूल्यांकन उतनी ही गंभीरता से किया जाना चाहिए, जितना किसी अन्य बड़े देश के दौरे का.
इस बात को बारंबार दोहराने का लाभ नहीं कि इन देशों के साथ हमारे आर्थिक संबंध नगण्य हैं. प्रसिद्ध रेशम राजमार्ग पर पड़नेवाले मुकाम इन देशों के नक्शे पर स्थित हैं और हम इस बात से अनभिज्ञ नहीं कि चीन इस राजपथ को पुनर्जीवित करने के लिए बेहद सक्रिय है.
इस क्षेत्र से गैरहाजिर रहना हमारे हित में नहीं. सोवियत युग से ही भारत के साथ इन देशों में तनावरहित दोस्ती का माहौल रहा है. हिंदी फिल्में, आयुर्वेद एवं योग, इन विषयों में स्थानीय जनता की गहरी दिलचस्पी है. बहुत कम निवेश का बड़ा लाभ यहां निकट भविष्य में मिल सकता है. पशुपालन, तकनीकी शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण के अलावा अंतरिक्ष विज्ञान, परमाण्विक ईंधन आदि में परस्पर लाभप्रद सहकार की विपुल संभावनाएं हैं. इस परिप्रेक्ष्य में आगामी दिनों में यह देखने लायक होगा कि जिन समझौतों की घोषणा हुई है, उनका क्रियान्वयन कैसे होता है.
ब्रिक्स वाले विकास बैंक के गठन से जुड़े काम के सिलसिले में नरेंद्र मोदी मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ-साथ रूस भी पहुंचे. यहां पुतिन से ही नहीं, चीन के सदर शी जिनपिंग से भी उनकी मुलाकात और वार्ता हुई. तमाम गर्मजोशी के बावजूद चीन की तरफ से अब तक हमें निराशा ही हाथ लगी है.
न तो सीमा पर उसका सैनिक दबाव कम हुआ है और न ही पाकिस्तान से प्रायोजित दहशतगर्दी के बारे में उसका रवैया रत्ती भर बदला है. इस बार भी लखवी को लेकर मोदी ने भारत की शिकायत दर्ज करायी, पर चीन टस से मस नहीं हुआ.
उसका कहना यही है कि भारत- पाक विवाद में वह तटस्थ है. यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि पिछली आधी सदी से वह पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध सामरिक और राजनयिक समर्थन देता रहा है. पाक अधिकृत कश्मीर में अपने सामरिक हित के अनुसार निर्माण कार्य जारी रख वह इस मामले में खुद को तटस्थ नहीं कह सकता. अत: यही सोचना तर्कसंगत है कि इस यात्र के दौरान भारत की शिकायत महज रस्म-अदायगी थी.
जो बात वास्तव में आश्चर्यजनक रही, वह है नवाज शरीफ के साथ मोदी की मिनी शिखर वार्ता सरीखी मुलाकात! यूं तो यह अटकल लगायी जा रही थी कि इस अवसर का लाभ भारतीय प्रधानमंत्री सद्भाव बढ़ाने के लिए करेंगे, पर किसी ने यह नहीं सोचा था कि दौरे की सबसे बड़ी खबर यही बन जायेगी.
जहां प्रधानमंत्री के समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि यह साहसिक पहल गतिरोध तोड़नेवाली ऐतिहासिक पहल है, वहीं विपक्षी आलोचक ही नहीं, उनके दल के कुछ नेता और सहयोगी शिवसेना आदि की नजर में यह आत्मघातक नादानी सिद्ध हो सकती है. पाकिस्तान कभी अपनी विश्वासघाती धूर्ततापूर्ण से बाज नहीं आ सकता है. अत: नरेंद्र मोदी का नरम पड़ना राष्ट्रहित के लिए जोखिम ही पैदा कर सकता है. क्या नरेंद्र मोदी ने परोक्ष रूप से स्थगित राजनयिक संवाद का पुनरारंभ अमेरिकी और चीनी दबाव में किया है?
यहां कुछ महत्वपूर्ण बातों की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है. भारत-पाक विदेश सचिवों ने पहली बार न केवल संयुक्त वक्तव्य जारी किया, वरन संयुक्त प्रेस सम्मेलन को भी संबोधित किया.
यह कहा गया है कि आगे से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, तथा डायरेक्टर ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन स्तर पर भी नियमित मुलाकातें और वार्ताएं होंगी. पहली बार नवाज शरीफ ने कश्मीर शब्द से परहेज किया. जाहिर है कि इस बार भी यह कहा जायेगा कि वह तो फौज के सामने लाचार हैं, उनके किसी बयान की कोई कीमत नहीं. स्वदेश लौटते ही पलट जायेंगे आदि.
चीन की ही तरह पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंधों में निकट भविष्य में किसी नाटकीय सुधार की आशा नहीं की जानी चाहिए. यह भी याद रखें कि चाहे किसी दल की सरकार हो, हर पड़ोसी के साथ संवाद जारी रखने की जरूरत बनी रहती है. मोदी के चुनावी भाषणों का हवाला देकर उनकी जुबान पकड़ना अक्लमंदी नहीं. धौंस-धमकी के साथ सुलह की पेशकश कुशल राजनय का अभिन्न अंग है.
किस अस्त्र का उपयोग किस अवसर पर किया जाये, इसका फैसला वही लेता है, जो सत्ताधारी हो. बड़ी सफलता का श्रेय चाहनेवाले को गंभीर जोखिम उठाना पड़ता है. इस विदेश यात्र में नरेंद्र मोदी ने जो जोखिम भरा दावं लगाया है, उसका परिणाम सामने आने में कुछ वक्त लगेगा.
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