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राजनीति में नारों तक सीमित है सेवा
‘भारत विडंबनाओं भरा देश है.’ यह कथन हमारे राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह सटीक बैठता है. एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आर्थिक संकट का हवाला देकर गरीबों के लिए बनायी गयी कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करते हैं तथा सिलिंडरों पर सब्सिडी छोड़ने का आह्वान करते हैं. वहीं, हमारे माननीय सांसद संयुक्त समिति का गठन कर […]
‘भारत विडंबनाओं भरा देश है.’ यह कथन हमारे राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह सटीक बैठता है. एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आर्थिक संकट का हवाला देकर गरीबों के लिए बनायी गयी कल्याणकारी योजनाओं में कटौती करते हैं तथा सिलिंडरों पर सब्सिडी छोड़ने का आह्वान करते हैं. वहीं, हमारे माननीय सांसद संयुक्त समिति का गठन कर वेतन-भत्ताें में वृद्धि की मांग करते हैं.
सही मायने में हमारे माननीय सांसद इस समय पतन के दौर से गुजर रहे हैं. एक ओर गरीबों की बड़ी आबादी अपना पेट भरने को संघर्षरत है. किसान आर्थिक संकट में आत्महत्या करने को अभिशप्त है. बेराजगार युवाओं की फौज खड़ी हो रही है.
देश में समस्याओं का पहाड़ खड़ा है. ऐसे में सांसदों द्वारा वेतन-भत्ताें में वृद्धि की मांग करना दुर्भाग्यपूर्ण है. सही मायने में आज की राजनीति में ‘सेवा’ शब्द सिर्फ नारों और मुहावरों तक ही सीमित रह गया है. लोग राजनीति में कदम सेवा के उद्देश्य से नहीं रखते हैं, बल्कि उनका हर फैसला स्वार्थ से प्रेरित है. आज के राजनेता गांधी, अंबेडकर, लोहिया को राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं, परंतु इन महापुरुषों के विचारों से दूर-दूर तक नाता नहीं है.
सांसदों के वेतन बढ़ाने का प्रस्ताव गांधी जी के विचारों को मुंह चिढ़ाने जैसा है. माना कि सांसदों को वेतन बढ़ाने का विशेषाधिकार प्राप्त है, परंतु मौजूदा परिस्थिति में इस प्रकार का प्रस्ताव घोर अनैतिकता है. सभ्य लोकतांत्रिक समाज के लिए अच्छा नहीं है. राजनीति में सिर्फ सेवा का स्थान होना चाहिए. स्वार्थ का नामोनिशान मिटा देना चाहिए. इसे नारों तक सीमित रखने के बजाय नरों के कर्म में प्रवेश कराना होगा. तभी स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना होगी.
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