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जो घोटाले से टूट गये, उनका क्या?

।।गुंजेश।।(प्रभात खबर, रांची) लालू प्रसाद पर फैसला आ चुका था. मैं इस उम्मीद के साथ मनबिदका भैया के कमरे पर पहुंचा कि आज तो वह बहुत खुश होंगे. कम से कम दोपहर की चाय तो मिल ही जायेगी. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. मुझे चाय तो खैर नहीं ही मिलनी थी, पानी-पानी […]

।।गुंजेश।।
(प्रभात खबर, रांची)

लालू प्रसाद पर फैसला आ चुका था. मैं इस उम्मीद के साथ मनबिदका भैया के कमरे पर पहुंचा कि आज तो वह बहुत खुश होंगे. कम से कम दोपहर की चाय तो मिल ही जायेगी. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. मुझे चाय तो खैर नहीं ही मिलनी थी, पानी-पानी जरूर होना था. कमरे में मनबिदका भैया गुमसुम बैठे थे, जैसे ही पूछा कि क्या ओबामा ने अपने देश का बजट कम करने के लिए आपको नियुक्त कर लिया है, जो चहरे पर ‘शट डाउन’ हो रखा है. मेरे यह पूछने भर की देरी थी, भैया बिदक गये.

बोले- देखो मजाक मत करो, पहले ही तुम लोग इतना रायता फैला चुके हो. अब और बरदाश्त नहीं होगा. मैंने पूछा- हुआ क्या! काहे राहुल गांधी हुए जा रहे हैं. तो वह बोले- तुम लोगों से अच्छा, तो वही राहुल है. कम से कम अपनी मां का कहा तो मानता है. तुम लोगों से कितनी बार कह चुका हूं कि पत्रकारिता नहीं होती, तो मूंगफली बेच लो. लेकिन ऐसा क्या गड़ा है इस धंधे में, जो पड़े भी रहेंगे और दिमाग भी नहीं लगायेंगे. मैंने पूछा- हुआ क्या, साफ-साफ बोलेंगे या आडवाणी जी की तरह गरमाते ही रहेंगे. पानी पीते हुए उन्होंने कहा- यह बताओ, तुम लोगों ने लालू को सजा होने पर अखबार में पन्ने के पन्ने रंग डाले, पर उसमें पीड़ितों का कोई पक्ष क्यों नहीं था. मैंने झट से कहा- सनक गये हैं क्या, अब कोई गाय-बैल का पक्ष कैसे ले सकता है.

मैं उन्हें हलके में ले रहा था, लेकिन मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर था. मेरा वाक्य खत्म होते ही, मनबिदका भैया बोले- बस, कुछ जानते-बूझते हैं नहीं और बन गये पत्रकार, ओपीनियन मेकर! जानते हो घोटाले का पता लगने के बाद बिहार सरकार के पशुपालन विभाग का क्या हुआ था? कितने कर्मचारियों को कितने अरसे तक वेतन नहीं मिला? कितने ही कर्मचारियों के बच्चे अच्छे निजी स्कूलों से इसलिए निकाल दिये गये, क्योंकि उनके पास फीस चुकाने के पैसे नहीं थे. कितने ही बच्चों को पढ़ाई तक छोड़नी पड़ी थी, क्योंकि उनके पिता की कमाई बंद हो गयी थी.

और कई पिताओं ने अपने ही परिवार से, उसकी जिम्मेदारियों से डर कर सड़क को घर बना लिया था. सरकार के दोषियों को तो सजा हो गयी, जो होती ही रहती है, लेकिन मेरे उस दोस्त को क्या इंसाफ मिला जिसका सपना पायलट बनने का था और जिसे पिता के पागलपन और परिवार की जिम्मेदारियों के कारण स्कूल से निकल कर पंचर बनाने की दुकान में बैठना पड़ा. कानून तो फिर अपनी सीमाओं में काम करता है. लेकिन क्या इन दिनों किसी अखबारों ने वैसे परिवारों की प्रतिक्रिया लेने की कोई कोशिश की! अरे छोड़ो, कोशिश भी तो तभी करोगे न, जब मालूम हो कि समाज में जो कुछ भी होता है, उसका असर सबसे पहले इस समाज के आखिरी आदमी पर ही होता है, जिसे अखबार के पन्नों पर कभी-कभार ही जगह मिल पाती है.

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