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नरेंद्र मोदी के आकर्षण के आयाम

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार एक ऐसे वक्त में जब हममें से बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि ‘सब चोर हैं’, तो भी हमारा रुख प्रधानमंत्री को इस फेहरिस्त से अलग रखने का होता है. नतीजतन, उन्हें हमारे समय के अन्य नेताओं के मुकाबले अपने प्रशंसकों द्वारा ज्यादा छूट मिल जाती है. पिछले साल […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
एक ऐसे वक्त में जब हममें से बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि ‘सब चोर हैं’, तो भी हमारा रुख प्रधानमंत्री को इस फेहरिस्त से अलग रखने का होता है. नतीजतन, उन्हें हमारे समय के अन्य नेताओं के मुकाबले अपने प्रशंसकों द्वारा ज्यादा छूट मिल जाती है.
पिछले साल जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव जीता था, तब उन्होंने अपनी पार्टी के वोट बढ़ा कर 32 फीसदी तक पहुंचा दिये. इसके मायने यह हुए कि उन्होंने वाजपेयी जी के जमाने और उसके ठीक बाद पार्टी को मिले औसत वोटों में 10 फीसदी का इजाफा किया.
मेरा हमेशा मानना रहा है कि उन्हें एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न दो समूहों से समर्थन मिलता है. इसमें ज्यादा प्रभावी समूह भारतीय जनता पार्टी का पारंपरिक मतदाता है, जो पार्टी की ओर इसके सिद्धांतों के कारण आकर्षित है.
यहां मेरा आशय हिंदुत्व, और मुसलमानों के प्रति नफरत का इजहार करनेवाले तीन बुनियादी मुद्दों- रामजन्मभूमि (मुसलमानों को अपनी मसजिद छोड़ देनी चाहिए), समान नागरिक संहिता (मुसलमानों को अपने पारिवारिक कानून छोड़ देने चाहिए) और अनुच्छेद 370 (मुसलमानों को कश्मीर में अपनी स्वायत्तता छोड़ देनी चाहिए) से है. लेकिन मेरा आशय उन लोगों से भी है, जो भाजपा को एक मेधा-संचालित (मेरिटोक्रेटिक) पार्टी मानते हैं, जिसकी विचारधारा का स्नेत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिये समाज सेवा में स्थित है. यह उसे गांधी परिवार के नेतृत्ववाली अभिजात्यवादी और वंशवादी कांग्रेस से अलग बनाता है.
भाजपा के मतदाताओं में दूसरा समूह उन लोगों का था, जो पार्टी की ओर मुख्यत: मोदी के आकर्षणवश आये. वे एक बेहद चतुर वक्ता हैं, (मैं उन्हें श्रोताओं से खुद को जोड़ लेनेवाले बाल ठाकरे और लालू यादव की ही श्रेणी में रखता था, लेकिन अब मेरा मानना है कि मोदी पिछले कई दशकों में सर्वश्रेष्ठ हैं) जो जटिल मसलों को चंद शब्दों के सरल नारों में बदल देने में सक्षम हैं, साथ ही भरोसेमंद भी दिखते हैं.
मोदी भारतीय राष्ट्रवाद के महान प्रतिनिधि हैं. अपने करिश्मा के कारण आकर्षक शख्सीयत हैं. एक नये भारत, और उनके नेतृत्व में एक नयी शुरुआत के उनके वादे का बड़े पैमाने पर खरीदार यही समूह था.
यह वह पृष्ठभूमि है, जिसके आईने में हमने उन खबरों को देखना शुरू किया है, जो बताती हैं कि भारत न तो हकीकत में और न ही सरकार के कामकाज के मामले में ज्यादा बदला है.
अर्थव्यवस्था ने उड़ान भरनी शुरू नहीं की है और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ‘मूडी’ सुधारों की गति पर निराशा जता चुकी है. इसी हफ्ते आयी गरीबी पर रिपोर्ट चौंकानेवाली है, जो बताती है कि ग्रामीण भारत के 92 फीसदी परिवार 10 हजार रुपये महीने से कम की आमदनी पर जिंदा हैं.
टेलीविजन घोटाले पर घोटाला दिखा रहा है और केंद्र व भाजपा की राज्य सरकारों के मंत्रियों के पीछे लगा हुआ है. चीजें फिर से मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम वर्षो के स्तर पर पहुंचती दिख रही हैं. लेकिन एक अहम पहलू है, जो बताता है कि ऐसा नहीं है. पिछले कुछ हफ्तों में भाजपा ने उपचुनावों में जीत दर्ज की है, जो दिखाता है कि मोदी का व्यक्तिगत समर्थन छीज नहीं रहा है.
इसे त्रिपुरा और केरल के गैरमामूली चुनाव नतीजों में भी देखा जा सकता है. त्रिपुरा में भाजपा उम्मीदवार कांग्रेस से आगे रहा है, जो उल्लेखनीय है. केरल में भाजपा प्रत्याशी, जो कि पार्टी के पुराने और लोकप्रिय नेता हैं, ने एक चौथाई वोट हासिल किये. इससे पहले के चुनावों में पार्टी को जो वोट मिलते रहे हैं, उससे यह बहुत ज्यादा है. कुछ लोगों ने कहा कि यह दिखाता है कि भाजपा का कमल केरल में खिल रहा है.
अगर ऐसा न भी मानें, तो भी निस्संदेह यह दिखाता है कि जिस वक्त मीडिया में ज्यादातर खबरें मोदी सरकार के बारे में नकारात्मक हैं, उस वक्त प्रधानमंत्री की चमक फीकी नहीं पड़ रही है. और, बाहरी दुनिया की जो यह धारणा है कि मोदी सिर्फ एक साल पहले ही संभावनाशील दिख रहे थे, अब दरकना शुरू हो गयी है.
इसकी व्याख्या कैसे करें?
भारत की दशा को लेकर रोज आ रही रपटों के जरिये अवधारणा (मीडिया के माध्यम से) और वास्तविकता (चीजों को लागू करने की) दोनों स्तरों पर प्रहार पर प्रहार हो रहे हैं. इसके बावजूद मोदी अपने समर्थक वर्ग पर कैसे पकड़ बनाये हुए हैं?
मेरी समझ से वह लहरों के बीच से अपनी नाव इसलिए सकुशल खेते जा रहे हैं, क्योंकि वह लोगों के उस दूसरे समूह को सफलतापूर्वक कायम रखे हुए हैं, जिसे उन्होंने भाजपा के प्रति आकर्षित किया था. मेरा आशय उन लोगों से है, जो मोदी के प्रशंसक हैं और जिन्हें यकीन है कि वह समय पर बदलाव लायेंगे. तमाम बुरी खबरों के बावजूद उन्हें यह नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री रास्ता भटक गये हैं.
मोदी ने यह काम किया है सीधे संवाद के जरिये. इस मायने में वह मीडिया पर निर्भर नहीं हैं. हालांकि, वह उन मुद्दों पर संवाद नहीं करते जिन पर टीवी एंकर और रिपोर्टर उनसे करना चाहते हैं (मसलन, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और इनका ललित मोदी से नाता), वह अपने प्रशंसकों से ट्विटर और सार्वजनिक भाषणों के जरिये संवाद बनाये रखते हैं.
अन्यथा, आइपीएल की कलंक -कथा के बढ़ते दायरे, इसमें लगभग सभी पार्टियों के लोगों की भागीदारी ने मोदी को नीचे धकेल देना चाहिए था. लेकिन उनके आकर्षण का एक आयाम यह है कि वह उनकी पार्टी से स्वतंत्र है (दूसरे समूह के लिए), जो उन्हें इस छीछालेदर से अलग रखता है. एक ऐसे वक्त में जब हममें से बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि ‘सब चोर हैं’, तो भी हमारा रुख प्रधानमंत्री को इस फेहरिस्त से अलग रखने का होता है. नतीजतन, उन्हें हमारे समय के अन्य नेताओं के मुकाबले अपने प्रशंसकों द्वारा ज्यादा छूट मिल जाती है.
अगर उनके कार्यकाल में अन्य कलंक -कथाओं का आना जारी रहता है, तो क्या वह इस हो-हल्ले से ऊपर खुद को हमेशा रख पायेंगे? नहीं, देश में जो भयंकर हालात हैं, उनके मद्देनजर क्षरण का दौर जरूर आयेगा. यह मान लेना कि सिर्फ एक आदमी के चलते ऊपरी स्तर पर या निचले स्तर पर या राज्यों में कोई भ्रष्टाचार नहीं होगा, जादू में यकीन रखने जैसा होगा.
हमें आनेवाले कई और दशकों तक, भारतीयों के खराब स्वास्थ्य, निरक्षरता और गरीबी को लेकर खबरों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कोई भी सरकार इसे एक कार्यकाल में बदलने में सक्षम नहीं होने जा रही है.
जब नेहरू जैसे महामानव हर सूरत में महान नहीं माने जाते, तो मोदी की हुकूमत के साथ भी इतिहासकारों को कुछ परेशानी होगी ही. लेकिन फिलहाल वह ऐसे दौर में अपनी चमक बनाये रखने में सफल हुए हैं, जिसमें कोई अन्य नेता धूमिल पड़ गया होता.
(अनुवाद : सत्य प्रकाश चौधरी)

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