।।किशन पटनायक।।
(समाजवादी चिंतक)
बिक्री लायक पदार्थो को ‘पण्य’(माल) कहा जाता है और उनके संग्रह को ‘संपत्ति’. आधुनिक समाज में संपत्ति को मूल्यों (रुपयों) में आंका जाता है. मैं अगर करोड़पति हूं, तो मेरी संपत्ति का मूल्य करोड़ों रुपयों में है. दुनिया में जितनी भी संपत्ति है, उनके मूल में हैं प्राकृतिक संसाधन. मेहनत, बुद्धि और मशीनों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों से विभिन्न पण्य वस्तुओं को बनाया जाता है. मशीनें भी खनिज धातु यानी प्राकृतिक संसाधनों से बनती हैं. दुनिया में मौजूद प्राकृतिक संसाधन सीमित होने के कारण संपत्ति भी असीमित नहीं हो सकती. इसलिए किसी भी युग में संपत्ति सदा सीमित ही रहेगी. उसकी हमेशा बढ़ोतरी संभव नहीं, बल्कि हर पल उसका घटना अनिवार्य है. धरती पर और धरती के गर्भ में छिपी खनिज संपदा एक दिन संपूर्ण रूप से खत्म हो जायेगी. सबसे पहले पेट्रोल और कोयले की बारी आयेगी.
उपरोक्त सच्चई को ठीक से समझना जरूरी है. पूंजीवादी शास्त्रों और प्रचार माध्यमों ने लोगों के दिमाग में गलतफहमी पैदा कर दी है कि दुनिया में संपत्ति असीम है और कभी नहीं खत्म होने वाली है. अमीर मुल्कों और अमीर तबकों के उपभोग और विलास को देख कर यही भ्रम पैदा होता है कि संपत्ति असीम है और बढ़ती जा रही है. बारीकी से देखने पर मालूम होता है कि हम जिसे संपत्ति की अभूतपूर्व वृद्धि कह रहे हैं, उसके पीछे एक भयानक सच छिपा है. इस वृद्धि के साथ दुनिया के मूल पदार्थो का तेजी से क्षय हो रहा है. इस बात को वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि पेट्रोल, कोयला जैसी कई किस्म की प्राकृतिक संपदा निकट भविष्य में खत्म होनेवाली है. इतना ही नहीं, हवा और पानी भी कम होंगे. इस तरह मानव जीवन के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है.
कुछ साल पहले जापान के क्योटो शहर में इस संकट पर चर्चा के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया था. विभिन्न देशों के सरकारी तथा गैर सरकारी प्रतिनिधियों ने वहां एक समझौते का मजमून तैयार किया था, जिसे ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ नाम दिया गया था. इसमें पर्यावरण यानी प्रकृति को नष्ट न करने संबंधी नियम बनाये गये थे और हर देश अपने-अपने कानून बना कर उनका पालन करे, ऐसा आह्वान किया गया था. इन नियमों का पालन करने से आधुनिक समृद्धि का ढांचा ढहने लगेगा, इसलिए 28 मार्च, 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद जॉर्ज बुश ने ऐलान किया कि अमरिका में संपत्ति की जो तीव्र वृद्धि दर है और वहां की जनता का जो ऊंचा जीवन स्तर है, उसमें व्यवधान वे नहीं चाहते. इस बात से स्पष्ट होता है कि अगर प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा करना है तो धन-संपत्ति वृद्धि की गति को कम करना होगा. जॉर्ज बुश की सरकार के प्रमुख मंत्रीगण अमेरिका के बड़े पूंजीपति हैं. वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक परिवारों के सदस्य हैं. दुनिया के विभिन्न देशों में उनके कल-कारखाने तथा खनिज कारोबार हैं, जिससे प्राकृतिक संपदा का विनाश हो रहा है.
प्राकृतिक संसाधनों से संपत्ति सृजन के दो तरीके हैं. प्रकृति हर पल नया जीवन और नयी संपदा का सृजन कर रही है. उसका इस्तेमाल अगर समुचित और कम मात्र में होगा, तो उससे मनुष्य का काम भी चलेगा और प्रकृति भी बची रहेगी. इसे सम्यक या टिकाऊ विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) कहा जायेगा. लेकिन आधुनिक विकास पद्धति से एक ही समय में बड़ी मात्र में संपत्ति पैदा करने के लालच के चलते बड़े पैमाने पर प्रकृति का विनाश किया जाता है. इस विनाश की भरपाई संभव नहीं होती और उस संपदा का मूल भंडार घटता जाता है. मिट्टी, पानी, हवा, सब कुछ प्रदूषित होते हैं. यह एक कटु सत्य है कि साफ पानी और साफ हवा की मात्र भी घट रही है. जंगल, वन्य प्राणियों और जलचरों पर भी भारी संकट है. पशुओं, पक्षियों और कीट-पतंगों की कई प्रजातियों का पृथ्वी से लोप हो चुका है. संपत्ति की ऐसी अंधाधुंध वृद्धि अच्छा मानवीय लक्ष्य कतई नहीं हो सकता. जिस प्रकिया से मानव जीवन खतरे में है तथा पृथ्वी की अकाल मौत हो सकती है, उस विकास पद्धति को कैसे आम जन और देशों के हित में कहा जायेगा? इसका जवाब ढूंढना होगा.
मौजूदा पद्धति के चलते हर मुल्क में एक बहुत ही अमीर वर्ग और एक मध्यम वर्ग पैदा हो रहा है. इन वर्गो द्वारा भोग के नंगे नाच से समाज भ्रष्टाचार, व्यभिचार और विषमता बढ़ रहे हैं तथा बहुसंख्यक जनता गरीबी और असुरक्षा का जीवन जी रही है. अमीर लोगों का लालच और अभवबोध सीमाहीन होने के कारण उनका मानसिक कंगालपन भी बढ़ रहा है. यह शोध का विषय है कि इस तरह की धनवृद्धि के चलते राष्ट्रों या सरकारों की नहीं, बल्कि एक अमीर तबके की आमदनी और खर्च बढ़ रहे हैं. दुनिया के जितने भी विकासशील देश हैं, उनमें से अधिकतर की सरकारों के पास शासन चलाने लायक धन नहीं है. भारत के अधिकतर प्रांतों की सरकारें दिवालिया हो रही हैं. यह कैसी धनवृद्धि है? कैसा विकास है? जिस धनवृद्धि से न राष्ट्र को, न आम जनता को लाभ पहुंचता हो, सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का तबका धनकुबेर बनता जाता हो और धन की फिजूलखर्ची होती हो, ऐसी धनवृद्धि समाप्त होना चाहिए.
गत दस सालों में भारत जैसे मुल्कों में धनवृद्धि के लिए दो बातों का जोर-शोर से प्रचार किया गया. पहला, बाजार का भूमंडलीकरण कर दो, आयात-निर्यात को पूरी तरह खुला कर दो. हमारे देश के उत्पादक दुनिया के बाजार में अपना सामान बेच कर अमीर बन जाएंगे. शरद जोशी जैसे किसान नेता भी इस बात के प्रवक्ता बने और प्रचार करने लगे कि भारत के किसान विदेशों में गेहूं, चावल, मूंगफली, कपास आदि उपज बेच कर डॉलर कमाएंगे. लेकिन इसका परिणाम उल्टा हुआ. निर्यात की तुलना में आयात ज्यादा हुआ. भारत के छोटे उद्योग प्राय: खत्म हो गये. इस वक्त पंजाब से केरल तक, गुजरात से ओड़िशा तक हर प्रांत में किसानों में तबाही मची हुई है. दूसरा, कंप्यूटर और सूचना तकनीक के क्षेत्र में भारत की सफलता को लेकर शुरू में काफी प्रचार हुआ, लेकिन अब खबर आ रही है कि भारत के कंप्यूटर विशेषज्ञ अमेरिका से खदेड़े जा रहे हैं. अमेरिका में उनकी मांग कम होगी तो भारत में उनको ज्यादा पैसा देकर रोजगार कैसे दिया जा सकेगा? यह बात साफ हो रही है कि भारत का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग सिर्फ सूचना तकनीक के सहारे अपने भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते.
ओड़िशा में प्रचुर मात्र में खनिज संपदा मौजूद है. ओड़िशा की धनवृद्धि के लिए इसे सबसे बड़े साधन के रूप में मान लिया गया है. यह एक भ्रामक सोच है. खनिज संपदा से भरपूर इलाके कभी किसी देश के समृद्ध इलाके नहीं रहे हैं. अब तो उन इलाकों की हालत और खराब हो रही है. किसी खदान परियोजना का पहला कदम है विस्थापन. सैकड़ों सालों से जिस परिवेश और बसाहट में लोग अपना जीवन यापन कर रहे थे, वहां से हटा कर उनके समुचित पुनर्वास का एक भी सफल उदाहरण ओड़िशा में नहीं है. शायद कहीं नहीं है. खदान परियोजना का दूसरा पहलू होता है बाहरी देशी-विदेशी कंपनियों को संबंधित इलाका सौंप देना. वहां वे ही सरकार बन जाती हैं. ये कंपनियां स्थानीय लोगों की भलाई तो नहीं करती, पर्यावरण नष्ट करने और हवा-पानी को प्रदूषित करने का काम करती हैं. स्थानीय लोगों को रोजगार देने की क्षमता ऐसी परियोजनाओं में नहीं के बराबर होती है. इन इलाकों में जो लोग खेती या जंगलों पर आश्रित रह जाते हैं, प्रदूषण के कारण उनका जीवन दूभर हो जाता है. तो खदानों से किनकी धन-वृद्धि होगी? देशी-विदेशी कंपनियां, उनके दलाल व ठेकेदार तथा उनको गैरकानूनी व अनैतिक ढंग से मदद पहुंचानेवाले नेताओं-अफसरों-बुद्धिजीवियों के एक तबके की धनवृद्धि होगी. सरकार इससे लाभान्वित नहीं होगी. खनन की सुविधा के लिए उस इलाके में सड़क, रेलमार्ग, बिजली, टेलीफोन जैसी व्यवस्था राज्य व केंद्र सरकारें विदेशों से कर्ज लाकर करेंगी. कंपनियों को कई तरह के अनुदान दिये जाएंगे. बदले में कंपनियों से जो रॉयल्टी और कर वसूले जाएंगे, उनकी मात्र नगण्य होती है. केंद्र व राज्य सरकारें दोनों घाटे में रहते हैं, एक छोटा अमीर तबका मालामाल हो जाता है. आदिवासियों के लिए तो खदान अभिशाप है. इसलिए इसका विकल्प ढ़ंढना होगा.
खदान इलाकों में दो तरह के काम किये जा सकते हैं. सामान्यत: खनिज संपदा जंगल-पहाड़ों में मौजूद होती है. पहाड़ों को खोद कर, प्रकृति को नष्ट कर, खनिज पदार्थो को निकाला जाता है. खदान परियोजना की यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है. खनिज पदार्थो की धरती के ऊपर जंगल और जलस्नेत होते हैं. वहां खेती और जंगल पर आधारित एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था खड़ी कर छोटे-छोटे उद्योगों का विकास किया जा सकता है. सभी खनिज इलाकों में झरने और छोटी नदियां होते हैं. छोटी जल-धारण योजनाओं को बना कर बड़े इलाके को सिंचित किया जा सकता है. इस तरह की विकास पद्धति से ही आम जनता व सरकार दोनों लाभान्वित होंगे. जंगल विभाग और ठेकेदारों द्वारा नष्ट किये गये जंगल को भी पुनर्जीवित किया जा सकता है. स्वभाव से प्रकृति-प्रेमी और प्रकृति पर निर्भर आदिवासियों पर भरोसा करके जंगलों के प्रबंध की जिम्मेवारी उनको दी जा सकती है. बड़े बांधों के विकल्प के तौर पर छोटी-छोटी जल-योजनाओं को स्वीकारना होगा.
राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी इस विषय पर सोचें. आम जनता, खास कर आदिवासियों के लिए खदानें वरदान हैं या अभिशाप, यह तय करें. विकास के नाम पर सरकार खदान परियोजनाओं को इजाजत दे रही हैं, उससे सरकार तथा आम जनता की धन-वृद्धि होगी- इस दावे की सच्चई के संबंध में उनके पास तथ्यगत प्रमाण नहीं हैं. ऐसी खनन परियोजनाओं को खुला विरोध क्यों न किया जाये? सबसे पहले धरती की सतह व उसके ऊपर बसे लोगों का विकास किया जाये. उनका विकास और स्थानीय जंगल-जमीन पर उनका हक स्थापित हो जाने के बाद वे खुद तय करेंगे कि धरती के नीचे मौजूद खनिज पदार्थो का उपयोग कैसे किया जाये. (‘सामयिक वार्ता’ से साभार)