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भूमि अधिग्रहण पर कांग्रेस का दोहरा रुख

सत्ता की भाषा बदल जाती है, लेकिन कहीं गहरे में उसका व्याकरण एक ही रहता है. यूपीए सरकार पूरे दस साल तक ‘समावेशी विकास’ की भाषा बोलती रही. इसके लिए उसने भूमि अधिग्रहण को जरूरी मान एक अधिनियम बनाया. वर्तमान एनडीए सरकार शासन के एक साल पूरे कर चुकी है और वह ‘सबका साथ, सबका […]

सत्ता की भाषा बदल जाती है, लेकिन कहीं गहरे में उसका व्याकरण एक ही रहता है. यूपीए सरकार पूरे दस साल तक ‘समावेशी विकास’ की भाषा बोलती रही. इसके लिए उसने भूमि अधिग्रहण को जरूरी मान एक अधिनियम बनाया. वर्तमान एनडीए सरकार शासन के एक साल पूरे कर चुकी है और वह ‘सबका साथ, सबका विकास’ की भाषा बोल रही है.
इस सरकार को भी विकास के लिए भूमि अधिग्रहण जरूरी लग रहा है. अगर पहले यूपीए और अभी एनडीए दोनों मान चुके हैं कि विकास के लिए भूमि अधिग्रहण अनिवार्य है, तो फिर इनमें से किसी के यह कहने का क्या औचित्य है कि हम इस या उस सरकार को किसानों की जमीन हड़पने नहीं देंगे. अजब यह है कि प्रधानमंत्री ने किसानों को भरोसा दिलाना चाहा कि उनकी जमीन नहीं हड़पी जायेगी और विपक्षी कांग्रेस भी यही राग अलाप रही है कि एनडीए सरकार को संसद के रास्ते भूमि अधिग्रहण से न रोक पाये तो फिर सड़क पर संघर्ष से उसे रोकेंगे.
राहुल गांधी अपने नये अवतार में कई दफे यह बात कह चुके हैं. सूचना के अधिकार कानून के तहत दी गयी एक अर्जी से इस बात का खुलासा हो चुका है कि बीते साल जून माह में ग्रामीण विकास मंत्रलय की एक बैठक में कर्नाटक, केरल, मणिपुर और महाराष्ट्र जैसे कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने भूमि अधिग्रहण कानून से जुड़े सामाजिक प्रभाव के आकलन और किसानों की रजामंदी संबंधी बाध्यकारी प्रावधानों को ढीले करने पर अपनी रजामंदी दी थी.
इस मुद्दे पर राहुल गांधी को एनडीए पर अपने तेवर सख्त करने से पहले यह बताना चाहिए कि क्या कांग्रेस आलाकमान अपने मुख्यमंत्रियों की राय से सहमति नहीं रखती, और क्या यूपीए के अगुआ दल के रूप में कांग्रेस ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाते वक्त कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की राय की अनदेखी की थी. राहुल गांधी को आर-पार की लड़ाई की बात कहने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उनके सहयोगी भी वही राय रखते हों, अन्यथा ऐन लड़ाई के बीच उनके भाग खड़े होने का खतरा पैदा हो सकता है.
यह ठीक है कि कांग्रेस इस सरकार की नीतियों की आलोचना करे, पर उसे यह भी विचार करना होगा कि कहीं वह अपनी ही किसी नीति के विरोध में तो नहीं खड़ी हो रही.

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