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विकास का ओरिजिनल ब्लू प्रिंट कहां है!

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार कमजोर पीएम माने गये अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह हों या ताकतवर पीएम के तौर पर नरेंद्र मोदी, जब दोनों मिलकर देश की अर्थव्यवस्था पर चर्चा करेंगे, तब भी देश में बदलेगा क्या? क्योंकि विकास का ओरिजिनल ब्लू पिंट्र तो किसी के पास भी नहीं है. साल भर पहले मनमोहन सिंह ‘अछूत’ […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
कमजोर पीएम माने गये अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह हों या ताकतवर पीएम के तौर पर नरेंद्र मोदी, जब दोनों मिलकर देश की अर्थव्यवस्था पर चर्चा करेंगे, तब भी देश में बदलेगा क्या? क्योंकि विकास का ओरिजिनल ब्लू पिंट्र तो किसी के पास भी नहीं है.
साल भर पहले मनमोहन सिंह ‘अछूत’ अर्थशास्त्री थे. जातीय राजनीति करनेवाले भी बीजेपी के लिए अछूत थे. कश्मीरी पंडितों की घर वापसी जरूरी थी. किसानों के दर्द पर बीजेपी जान छिड़कने को तैयार थी.
सत्ता के दलालों के लिए बीजेपी में गुस्सा था.पार्टी को विश्व बैंक की नीतियां गुलाम बनानेवाली प्रतीत होती थीं. बीजेपी अपनी जीत पर इतराती हुई ‘एकला चलो’ के नारे लगा रही थी. लेकिन, साल भर में सब कुछ बदल गया. मनमोहन सिंह के लिए 7-आरसीआर के दरवाजे खुल गये. जातीय राजनीति की जमीन से उपजे जीतन राम मांझी से गलबहियां डालने के रास्ते निकाले जाने लगे. कश्मीरी पंडितों की उम्मीद मुफ्ती के साथ सत्ता प्रेम तले दफन होने लगी. किसानों को विकास के जाल में फंसाने के उपाय खोजे जाने लगे.
राडिया टेपकांड की फाइल बंद कर दी गयी. बिहार में चुनावी जीत के लिए जिस पप्पू यादव की दबंगई के कसीदे पढ़े गये, वह दंबगई छूमंतर होने लगी. सरकार चलाने के लिए भी कहीं ममता तो कहीं जयललिता से हाथ मिलाना शुरू हो गया. विश्व बैंक की नीतियां विकास के लिए शानदार लगने लगीं और विश्व बैंक के हिमायती योजना आयोग के जिस मोंटेक सिह अहलूवालियों की अर्थशास्त्रीय सोच की टोपी संसद के भीतर उछाली गयी, उसी सोच के अरविंद पनगढ़िया को नीति आयोग का जिम्मा सौंप दिया गया. तो क्या साल भर पहले जनता ने बदलाव के जो सपने नरेंद्र मोदी के जरिये संजोये, वह सिवाय सपने के और कुछ न था?
क्या जातीय राजनीति, दागी राजनीति और कॉरपोरेट राजनीति ही जीत का आखिरी चुनावी मंत्र है? और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हो या हिंदू राष्ट्रवाद या फिर राष्ट्रीय स्वाभिमान का सवाल, क्या सत्ता मिलने के बाद सब कुछ ठंडे बस्ते में डाल कर ही सत्ता चलायी जा सकती है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज भी संसद में बैठे दौ सौ से ज्यादा माननीयों पर भ्रष्टाचार या अपराध के मामले चल रहे हैं.
अब यह बात हर जेहन में उठ रही है कि जिन सवालों को साल भर पहले नरेंद्र मोदी ठसक के साथ उठा रहे थे, वही सवाल अब सरकार चलाने में भारी पड़ रहे हैं. जिस उत्तर प्रदेश में आठ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हों, वहां सत्ता शाही अंदाज में विवाह समारोह करती है और प्रधानमंत्री मोदी उसमें शरीक होने से नहीं हिचकते.
मुश्किल यह नहीं है कि जयललिता को आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में बरी होते ही देश के पीएम बधाई देते हैं या फिर चिट फंड में फंसी ममता को राजनीतिक तौर पर एक वक्त ताड़ते हैं और दूसरे पल समझौते की दिशा में कदम बढ़ जाते हैं. मुश्किल यह है कि हाशिये पर पड़े देश के करोड़ों लोग, जो सत्ता के बदलाव से अपनी जिंदगी में बदलाव के सपने संजोते हैं, उनके सामने हर बार वही हालात नये चेहरे के साथ खड़े हो जाते हैं. तो क्या हर पांच साल बाद देश चुनाव के लिए जनता की भावनाओं के साथ खेलने का नायाब अवसर दे रहा और यही राजनीतिक बिसात है?
सच क्या है, यह चुनाव के वक्त नेताओं के भाषण या उनके खिलाफ आक्रोश में सड़क पर जमा होते लोगों से खड़ा होते आंदोलन के बीच पता चल नहीं पाता है. इसका कारण यह है कि राज्य चलाने का कोई सार्थक सामाजिक मॉडल कहीं से निकल नहीं रहा है. साल भर पहले पीएम बनने के लिए सैकड़ों मील की यात्र करते हुए नरेंद्र मोदी जो कह रहे थे, वह पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के दौर में सत्ता से बने सामाजिक मवाद को दिखाने-बताने के सिवा और कुछ था भी नहीं.
यानी देश चले कैसे और चल रहे देश को कौन रोक रहा है, उसे कैसे दरकिनार किया जाये, ऐसे सवाल हर दौर में अनसुलङो रहे हैं या फिर संसदीय ढांचा जिन आधारों पर आ खड़ा हुआ है उन आधारों को ही देश मान लिया गया है. अगर कोई राजनेता, नौकरशाह, पार्टी कार्यकर्ता, व्यापारी, उद्योगपति नहीं है, तो वह देश का नागरिक है कहां, और देश के संविधान के तहत उसे जो हक मिले हैं, उसकी सुनेगा कौन, इसकी कोई व्यवस्था किसी रूप में मौजूद है ही नहीं.
मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह विदेशी निवेश के जरिये विकास का जिक्र लगातार कर रहे हैं और उसी से हाशिये पर पड़ी जमात की तसवीर बदलने का सपना दिखा रहे हैं, उसके उलट स्थिति यह है कि 1991 में भी भारत दुनिया के मानचित्र पर भुखमरी में पहले नंबर पर था और 2014-15 में भी पहले नंबर पर है.
तो फिर विकास के नाम पर किसका विकास होता है या आम जनता क्यों बदहाली में ही रह जाती है, यह सवाल बहुत जटिल नहीं है. पन्ने पलटें तो 1991 में 1 अरब 30 करोड़ का विदेशी निवेश भारत में हुआ, जबकि 2014-15 में 35 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ. लेकिन विदेशी निवेश के आसरे देश को विकास की राह पर लाने के दावे करनेवाले इस आंकड़े से परेशान होंगे कि 1990-91 में देश में 21 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार थे, 2014-15 में भी करीब 19.5 करोड़ भुखमरी के शिकार हैं.
दावे करनेवाले कह सकते हैं कि तब आबादी कम थी, अब ज्यादा है. लेकिन समझना यह भी होगा कि इसी दौर में भारत के पड़ोस में भुखमरी के हालात में खासा सुधार हुआ है. चीन में 1991 में 29 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार थे, जिनकी संख्या घट कर 13 करोड़ रह गयी है.
नेपाल में भुखमरी की स्थिति में 65.6 फीसदी और भूटान में 49.9 फीसदी की कमी आयी है. ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र के स्टेट ऑफ फूड इनसिक्योरिटी इन द वल्र्ड की है, जिसके मुताबिक दुनियाभर में 79.4 करोड़ लोग अब भी भुखमरी के शिकार हैं, जिनमें से 19.4 करोड़ लोग भारत में रहते हैं.
तो अब सवाल यह भी है कि क्या विकास को लेकर देश में जो रास्ता 1991 के बाद से अपनाया गया, वह गलत है? विकास से गरीबों को तो अब भी जोड़ा जा रहा है, पर जानकारों का कहना है कि आर्थिक सुधार के बाद से विकास का रास्ता सिर्फ बाजार तक पहुंचनेवाले उपभोक्ताओं के लिए है. यह रास्ता मुनाफा बनानेवाली सोच को बढ़ावा देनेवाला है.
भारत में भुखमरी की स्थिति में सुधार नहीं हुआ, पर बच्चों को पोषण और मिड-डे-मील स्कीमों के बजट में कमी हो गयी. तो सवाल सीधा है कि जब विकास के लिए उठाये गये कदमों का फायदा गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों तक पहुंच ही नहीं रहा, तो क्या विकास की बातें बेमानी हैं या सरकार की तमाम योजनाएं हाशिये पर पड़े उस इंसान के लिए हैं ही नहीं, जिन्हें केंद्र में रख कर योजनाएं बनाने का दावा किया जाता है.
ऐसे में कमजोर पीएम माने गये अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह हों या ताकतवर पीएम के तौर पर नरेंद्र मोदी, जब दोनों मिलकर देश की अर्थव्यवस्था पर चर्चा करेंगे, तब भी देश में बदलेगा क्या? क्योंकि विकास का ओरिजिनल ब्लू पिंट्र तो किसी के पास भी नहीं है.

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