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मुजफ्फरनगर दंगों का संदेश!

।। विवेक शुक्ला ।। वरिष्ठ पत्रकार विभाजन से उत्पन्न कारण 1960 तक लगभग समाप्त हो चुके थे. इसके बाद हुए दंगे विभाजन के बाद क्षीण हुए मुसलिम और हिंदू सांप्रदायिक संगठनों के पुर्नसगठित होने और राजनीतिक हितों के लिए दंगे कराने की प्रवृत्ति के कारण हुए. शहीद भगत सिंह का जून, 1928 में ‘प्रताप’ अखबार […]

।। विवेक शुक्ला ।।

वरिष्ठ पत्रकार

विभाजन से उत्पन्न कारण 1960 तक लगभग समाप्त हो चुके थे. इसके बाद हुए दंगे विभाजन के बाद क्षीण हुए मुसलिम और हिंदू सांप्रदायिक संगठनों के पुर्नसगठित होने और राजनीतिक हितों के लिए दंगे कराने की प्रवृत्ति के कारण हुए.

शहीद भगत सिंह का जून, 1928 में प्रताप अखबार में लिखा लेख मुजफ्फरनगर में हुए दंगे की रोशनी में मौजूं लगता है. सांप्रदायिक दंगे और उनके इलाज शीर्षक लेख में भगत सिंह ने लिखा था, हिंदुस्तान का भविष्य अंधकारमय नजर आता है.

धर्मो ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और अभी पता नहीं कि धार्मिक दंगे भारत का पीछा कब छोड़ेंगे. दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम किया है. हमने देखा है कि धार्मिक अंधविश्वास के बहाव में सभी बहे जाते हैं.

कोई विरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब डंडेलाठियां, तलवारेंछूरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में लड़ कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना लहू बहने के बाद इन पर अंगरेजी सरकार का डंडा बरसता है, तब इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने जाता है. इससे साफ है कि भगत सिंह 85 साल पहले ही सांप्रदायिक दंगों से तारतार होते देशसमाज को करीब से देख रहे थे.

पिछले दिनों मुजफ्फरनगर में छोटी सी बात के बाद जिस तरह से दो समुदाय आपस में भिड़े, वह शर्मनाक है. इससे साफ है कि हम अब भी सुधरे नहीं हैं. गन्ने की खेती के लिए मशहूर मुजफ्फनगर या पश्चिमी यूपी शेष सूबे से तुलनात्मक रूप से समृद्ध है. इस क्षेत्र में बड़े काश्तकारों का वर्चस्व रहा है.

मुजफ्फरनगर से सटे मेरठ के हाशिमपुरा और मलियाना में जो कुछ बीते दौर में हुआ, उसकी डरावनी कहानियां 1980 के दशक में आम थीं. अब मुजफ्फरनगर दंगों का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि पश्चिमी यूपी के गांवों का सामाजिक तानाबाना ताश के पत्तों की तरह बिखर गया. इससे पहले गांवों में सांप्रदायिकता का जहर नहीं फैला था.

मुजफ्फरनगर में डॉ मकसूद अहमद मिले. वे वहां एक स्कूल में भौतिकी पढ़ाते हैं. कहने लगे, जिन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों की रत्तीभर भी समझ है, उन्हें मालूम है कि इधर मजहब से पहले जाति का स्थान रहा है.

सदियों पहले इसलाम धर्म का हिस्सा बने लोग अब भी अपनी पुरानी जातियों से भावनात्मक स्तर पर जुड़े हैं. मसलन मुसलिम बने जाटों को मूला जाट, त्यागी को महेसरा, राजपूतों को राजपूत मुसलमान, गुर्जरों को गुर्जर मुसलमान कहा जाता है. इसलाम से जुड़ने के बाद भी इनकी अनेक परंपराएं और रस्में इनकी मूल जाति वाली हैं.

यहां हरित क्रांति से दोनों ही समुदायों को लाभ हुआ. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमान तकरीबन 68 जातियों और कई उपजातियों में बंटे हैं. लेकिन संकट में ये एक साथ खड़े होते हैं. इसे मुजफ्फरनगर में पैदा हुए हालात में भी देखा गया. फिर भी मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ, उसके बाद दोनों समुदायों के बीच सामाजिक रिश्तों में गांठ तो पड़ ही गयी है.

देखना होगा कि क्या जो मुसलमान अपने पुरखों की जातियों के कारण एक प्रकार से हिंदू धर्म से जुड़े हुए थे, उनमें बदलाव आयेगा अथवा नहीं.

बाबरी विध्वंश के बाद देश में आर्थिक उदारीकरण की बयार चली. पहली नजर में लगता था कि देश तब से बहुत बदल गया. ऐसा लगने लगा कि देश के सभी मजहबों से जुड़ी नयी पीढ़ी पुराने गिलेशिकवे भूल कर एक नयी इबारत लिखने के मूड में है.

उसका एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना है. पैसा कमाने वाले के पास धर्म या जाति के नाम पर लड़ने का वक्त नहीं होगा. लेकिन, अफसोस इस धारणा को मुजफ्फरनगर और देश के दूसरे भागों में हाल में हुए दंगों ने धूल में मिला दिया. जबकि 1992 में बाबरी विध्वंश के बाद फैले चरम सांप्रदायिक तनाव के समय भी राज्य सरकार को मुजफ्फरनगर में सेना नहीं बुलानी पड़ी थी.

देश में सांप्रादयिक दंगों का विभिन्न कोणों से गहन अध्ययन कर चुके विभूति नारायण सिंह मानते हैं कि 1960 के बाद भारत में जो सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, उनका चरित्र 1947 के आसपास हुए विभाजन से संबंधित दंगों के चरित्र से भिन्न है. विभाजन से उत्पन्न कारण 1960 तक लगभग समाप्त हो चुके थे.

इसके बाद के वर्षो में हुए ज्यादातर दंगों के कारण विभाजन की स्मृति से एकदम परे हट कर थे. ये विभाजन के फौरन बाद क्षीण हुए मुसलिम और हिंदू सांप्रदायिक संगठनों के पुर्नसगठित होने और राजनीतिक हितों के लिए दंगे कराने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही हुए.

इस समय भी मुजफ्फरनगर दंगे से पहले और बाद में तमाम दलों के नेता सियासत कर रहे हैं. यह उनका काम है, पर कुछ लोगों को यह सब देख कर बड़ी हैरानी हो रही है. ये लोग अब भी गांधीजी या कबीर जैसी किसी विभूति के होने की उम्मीद कर रहे हैं! पर, हकीकत यह है कि अब देश को सांप्रदायिकता के जहर को खत्म करने के उपाय खुद तलाशने होंगे. ये उपाय अगर जल्द नहीं तलाशे गये, तो मजहब के नाम पर इनसान का लहू बहता रहेगा. इससे देश तो खोखला होता ही रहेगा.

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