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पीएम के पूर्वी एशिया दौरे की उपलब्धियां

भारत का मंगोलिया में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक अरब डॉलर का कर्ज देना और रणनीतिक साझेदारी के लिए तैयार होना उपलब्धि है, क्योंकि इस तरह भारत भी चीन के पड़ोस तक अपनी मौजूदगी दर्ज करा पायेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्रा के बारे में जो बातें […]

भारत का मंगोलिया में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक अरब डॉलर का कर्ज देना और रणनीतिक साझेदारी के लिए तैयार होना उपलब्धि है, क्योंकि इस तरह भारत भी चीन के पड़ोस तक अपनी मौजूदगी दर्ज करा पायेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्रा के बारे में जो बातें उल्लेखनीय हैं, उनमें एक है ‘एक्ट इस्ट’ पॉलिसी. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने यात्रा के आखिरी चरण में इसका उल्लेख किया और ‘एक्ट इस्ट’ एक मायने में यात्रा का समापनी और निष्कर्ष वाक्य माना जायेगा. इस बात में उनका एक संदर्भ केंद्र की कांग्रेसनीत पिछली सरकारें भी थीं.
वे जताना चाह रहे थे कि उनकी सरकार प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के शासनकाल में गढ़े गये मुहावरे ‘लुक इस्ट’ पॉलिसी से आगे निकल कर दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ अपने संबंधों में कुछ नया और ठोस करना चाहती है. यह मंशा प्रशंसनीय है, पर यह भी देखा जाना चाहिए कि इस दिशा में प्रगति कहां तक हुई? क्या चीन से सीमा मामले पर कोई ठोस आश्वासन मिला, जिससे लगे कि वह भारत के साथ विवाद सुलझाने के लिए उत्सुक है?
अफसोस! ऐसा नहीं हो सका. हम इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि आखिरकार एक भारतीय प्रधानमंत्री ने अपने चीनी समकक्ष ली क्विंग से वास्तविक सीमा-रेखा को स्पष्ट करने की बात साफ-साफ कही, लेकिन हमें याद रखना होगा कि चीन पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ा. स्वयं प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि चीन और भारत के पारस्परिक रिश्ते को कमजोर करनेवाले मुद्दों के बारे में चीन को अपना नजरिया बदलना चाहिए. जाहिर है, प्रधानमंत्री के इस वाक्य में एक अफसोस था और यह अफसोस उस उम्मीद के एकदम उलट है, जो चीन दौरे पर जाते वक्त प्रधानमंत्री के ट्विटर हैंडिल पर लरज-गरज रहा था.
यात्रा से पहले प्रधानमंत्री ने लिखा था कि उनकी यह यात्रा ‘ऐतिहासिक’ और ‘मील का पत्थर’ साबित होगी. यह सही है कि चीन के साथ 22 अरब डॉलर से अधिक के करार पर हस्ताक्षर किये गये और इसे प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ नारे की एक सफलता के रूप में देखा जा सकता है, पर इस मामले में दो जरूरी बातों को याद रखना होगा.
एक, भारत और चीन के बीच भले ही आपसी व्यापार 70 अरब डॉलर का आंकड़ा छूने जा रहा हो, लेकिन इस व्यापार का पलड़ा चीन के पक्ष में झुका हुआ है. चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा 40 अरब डॉलर से अधिक हो चला है और चीन के साथ हुए हाल के व्यापारिक समझौतों से यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं है कि भारत को इस व्यापार घाटे में सम्मानजनक कमी लाने में कितने वर्ष लगेंगे.
दूसरे, चीनी मीडिया ने प्रधानमंत्री की यात्रा के समाप्त होने की घड़ी में अपनी तरफ से ‘मेक इन इंडिया’ के नारे पर चुटकी भी ली. सरकार नियंत्रित चीनी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अपने संपादकीय में लिखा कि भारत के बुनियादी ढांचे की खामियों की वजह से भारत में ज्यादा विदेशी निवेश आकर्षित करने की क्षमता नहीं है.
अखबार का तर्क था कि ‘अगर कोई देश भारत में निवेश को प्रोत्साहित करने की कोशिश करता है, तो ज्यादातर कार्यक्रम सरकार के नेतृत्व में होंगे, जो अधिकतर निजी क्षेत्र को पसंद नहीं आयेंगे.’ प्रधानमंत्री के लिए चीनी मीडिया का यह बरताव निजी रूप से भी निराश करनेवाला रहा होगा, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मोदी तीन बार चीन की यात्रा कर चुके थे और उनके विकास के गुजरात मॉडल को चीन ने उस वक्त विश्वस्तर पर मशहूर करने में भूमिका निभायी थी,जब अमेरिका उन्हें वीजा नहीं दे रहा था.
चीन की तुलना में प्रधानमंत्री का मंगोलिया और दक्षिण कोरिया का दौरा तुलनात्मक रूप से ज्यादा कामयाब माना जायेगा. चीन श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान के साथ व्यापारिक रिश्ते बढ़ा कर भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है.
इस लिहाज से भारत का मंगोलिया में बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक अरब डॉलर का कर्ज देना और रणनीतिक साङोदारी के लिए तैयार होना एक उपलब्धि है, क्योंकि इस तरह भारत भी चीन के पड़ोस तक अपनी मौजूदगी दर्ज करा पायेगा.
दक्षिण कोरिया का बुनियादी ढांचे के विकास के लिए भारत को 10 अरब डॉलर देने का फैसला भी प्रधानमंत्री की व्यापार-हितैषी छवि के अनुकूल है. 2009 में दक्षिण कोरिया के साथ आर्थिक साङोदारी के लिए समझौता हुआ था और यह यात्रा इसे आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई है.
प्रधानमंत्री के तीन देशों के दौरे का एक पहलू यह भी रहा कि उन्होंने विदेश में आप्रवासी भारतीयों के बीच अपने एक साल के कार्यकाल और कार्यशैली की प्रशंसा के लिए यूपीए सरकार के दिनों को कोसना जरूरी समझा. देश में राजनीतिक विपक्ष के रूप में कोई नेता ऐसा करे, तो बात समझ में आती है, लेकिन विदेश में एक प्रधानमंत्री द्वारा ऐसा करना शोभादायी नहीं कहा जायेगा.

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