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वो जब भी देते हैं तो छप्पर फाड़ कर

।।अमरेंद्र कुमार ठाकुर।।(प्रभात खबर, भागलपुर)कुछ काम से अचानक गांव जाने का कार्यक्रम बना. सुबह निकला और करीब डेढ़ घंटे बाद गांव पहुंच गया. अपने घर के करीब जैसे ही पहुंचा, झटका-सा लगा. गांव की मेरी एक काकी साक्षात ज्वालामुखी बनी हुई थीं. उनके मुख से तपते लावे की तरह चुन-चुन कर गालियां निकल रही थीं. […]

।।अमरेंद्र कुमार ठाकुर।।
(प्रभात खबर, भागलपुर)
कुछ काम से अचानक गांव जाने का कार्यक्रम बना. सुबह निकला और करीब डेढ़ घंटे बाद गांव पहुंच गया. अपने घर के करीब जैसे ही पहुंचा, झटका-सा लगा. गांव की मेरी एक काकी साक्षात ज्वालामुखी बनी हुई थीं. उनके मुख से तपते लावे की तरह चुन-चुन कर गालियां निकल रही थीं. उनके आसपास कई लोग खड़े थे, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि गरम लावे पर पानी छिड़क सके.

कोई हस्तक्षेप करे भी तो कैसे, अगर ज्वालामुखी का मुख उसकी ओर ही मुड़ जाये. इसलिए मैंने भी उन्हें टोकना उचित नहीं समझा और आगे बढ़ गया. दिन के करीब चार बजे तक जो भी काम निबटा सका निबटाया, फिर भागलपुर लौटने की तैयारी में जुट गया. इसी क्रम में जब मैं दरवाजे की ओर गया, तो ढाई इंच की बिना प्लास्टर वाली दीवार, ढाई फुट गहरे गड्ढे, टिन की छत और दरवाजे वाले नवनिर्मित ढांचे को देख कर ठिठक गया. एक ही कतार में एक साथ चार शौचालय बने हुए थे. जिस गांव के लगभग सभी घरों में शौचालय नहीं है, वहां एक ही जगह एक साथ चार-चार शौचालय बन कर तैयार थे और सब में ताला लगा हुआ था. मैं सोचने लगा कि आखिर किसे इतनी संख्या में शौचालय की जरूरत पड़ गयी? तभी गांव का ही मेरे बचपन का एक साथी सुखनंदन मेरे सामने से आ रहा था.

उसने आते ही मुझसे पूछा, क्या सोच रहे हो? मैंने कहा, सुखनंदन यह क्या बना है? उसने कहा, ये शौचालय काकी ने ही बनवाये हैं. अभी किसी ने इस पर टिप्पणी कर दी थी, बस इसी बात से ज्वालामुखी बनी हुई हैं. मैंने कहा, उनके पास तो ढंग का एक घर भी नहीं है, फिर चार-चार शौचालय क्यों बनवाये हैं. सुखनंदन ने कहा, चार नहीं, पांच शौचालय बनवाये गये हैं. चार बाहर हैं और एक आंगन में. मैंने कहा, लेकिन उनके घर में तो और कोई रहता नहीं है. उनके सभी बेटे परदेस में मेहनत-मजदूरी करते हैं. मैं सोच में पड़ गया. पता चला कि स्वच्छता योजना के तहत उनके यहां पांच शौचालय बने हैं.

मुझेयाद आया कि ऐसे ही इससे पहले गांव में वृद्धों की संख्या बढ़ गयी थी. उससे पहले स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या भी बढ़ी थी. एक शोधार्थी ने तो इस पर शोध ही कर डाला था कि एक गांव में एक साथ इतने वृद्ध. युवाओं की तुलना में वृद्धों की संख्या में इजाफा. उसने सरकारी अनुदान भी ले लिया था इस शोध पत्र पर. उस पर कमेटी बनी थी कि कै से इस गांव में वृद्ध जवान जैसे दिखते हैं. उनकी जवानी का राज क्या है? कुछ दिनों बाद चापानल वाली योजनाओं में भी ऐसे ही वाकये से दोचार हुआ था. किसी-किसी घर के आगे दो-दो चापानल और किसी टोले में एक भी नहीं. फिर बचपन के दिनों की याद आयी, जब गांव में लोग कहते थे, भगवान जब भी देते हैं छप्पर फाड़ के देते हैं. वही कहावत मेरे गांव में फिर दोहरायी गयी और काकी को छप्पर फाड़ कर शौचालय दिये गये.

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