अगर यह मान्यता सही है कि वर्तमान की घटनाओं का सुराग इतिहास में मिलता है, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भड़के भीषण सांप्रदायिक दंगे की जड़ों की तलाश करना काफी मुश्किल है. ऐसा इसलिए, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पानी की तासीर कुछ और ही है. हरित क्रांति से समृद्ध हुए क्षेत्रों में पंजाब-हरियाणा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है.
जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो जरूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश को सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील कहा जा सकता है, लेकिन इतिहास के सफ्हे पलटने पर आपको यहां धार्मिक तनाव की घटनाएं इक्का-दुक्का ही मिलेंगी. वह भी शहरों में. इस इलाके के गांव सदियों से धार्मिक सौहार्द, आपसी भाईचारे और मेल-मिलाप के माहौल में जीते रहे हैं. यहां तक कि मंदिर-मसजिद के तनाव भरे दौर में भी जब पूर्वी उत्तर प्रदेश मजहबी आधार पर गहरे ध्रुवीकरण का शिकार हुआ था, पश्चिमी यूपी अपने इस स्वभाव को बचाये रखने में कमोबेश कामयाब रहा था.
दरअसल, यहां की जनता हिंदू-मुसलिम बाद में है, किसान पहले है. वह किसान, जो खेतों में जी-तोड़ मेहनत करता है. गेहूं की सुनहरी बालियां जिसकी आंखों में चमक पैदा करती हैं. जिसकी जुबान में गन्ने के रस से बनने वाले गुड़ और चीनी की मिठास घुली है. यह इस किसानी संस्कृति की वजह से ही है कि यहां की राजनीति वास्तव में किसान आधारित रही है. इस क्षेत्र से जितने भी प्रमुख नेता हुए, वे मुख्यत: किसान नेता ही थे.
फिर चाहे वे चौधरी चरण सिंह हों, महेंद्र सिंह टिकैत या अब अजित सिंह. क्षेत्र में लोकसभा की 18 सीटें हैं. पिछली बार इनमें से ज्यादातर दो पार्टियों में ही बंटी थीं. जाहिर है यहां की संस्कृति में समायी हुई किसानी एकता कुछ राजनीतिक दलों के चुनावी गणित के मुफीद नहीं है. मीडिया में आ रही खबरें इशारा कर रही हैं कि मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक उफान के पीछे ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति का बड़ा हाथ है. इस बार जिस तरह से सांप्रदायिक तनाव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों तक को अपनी जद में ले लिया है, उसे देखते हुए लगता है कि विभाजन करनेवाली शक्तियां अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब भी रही हैं. इसलिए दंगे का पूरा सच सामने आना जरूरी है.