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गिरमिटिया लोगों की संपर्क क्रांति ट्रेन
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार आज उत्तरी बिहार के लोग सुपरफास्ट ट्रेनों में टिकट कटा कर भी यदि मवेशियों की तरह ठूंस कर यात्रा करने के लिए मजबूर हैं और किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगती, तो यह रेल महकमे की असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है. अमेठी से देहरादून लौटते समय लखनऊ जंक्शन पर अगली […]
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
आज उत्तरी बिहार के लोग सुपरफास्ट ट्रेनों में टिकट कटा कर भी यदि मवेशियों की तरह ठूंस कर यात्रा करने के लिए मजबूर हैं और किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगती, तो यह रेल महकमे की असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है.
अमेठी से देहरादून लौटते समय लखनऊ जंक्शन पर अगली ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था. इंटरनेट पर जिस ट्रेन को राइट टाइम बता रहा था, वह किस्तों में लेट होती गयी और तीन घंटे बाद मध्य रात्रि में प्रकट हुई. इस बीच मेरे सामने के प्लेटफार्म से कई गाड़ियां गुजरीं. सबमें सामान्य स्थिति थी, बल्कि गोरखपुर-पुणो में तो आधे से अधिक बर्थ खाली पड़े थे. उसके बाद नयी दिल्ली से दरभंगा जानेवाली सुपरफास्ट ट्रेन ‘बिहार संपर्क क्रांति एक्सप्रेस’ आयी. उसके स्लीपर क्लास में भीड़ ऐसी थी कि गेट तक बंद नहीं हो सकते थे.
मुङो उत्सुकता हुई कि जिन लोगों ने दो माह पहले आरक्षण करके निश्चिंत यात्रा का सपना देखा था, उनकी क्या दशा है? मैं उस ट्रेन के नजदीक जाकर झांकने लगा. जिसका आरक्षण था, वह किसी तरह लेटा था, मगर उसके बगल में सात-आठ व्यक्ति बैठे थे! पूरी बोगी में जगह की कमी के कारण लोग खड़े थे. नवयुवक स्वेच्छया पायदान पर लटक कर चल रहे थे, जिससे फ्रेश हवा मिल सके और गाड़ी रुकने पर छोटी-मोटी ‘शंका’ का निवारण हो सके. मैं यह सोच कर हतप्रभ था कि इसमें सवार लोग शौचालय कैसे जायेंगे और खाना-पीना कैसे करेंगे?
मैं कुछ ही दूर आगे बढ़ा कि एक स्लीपर कोच का शौचालय दिखा. उसके भीतर का दृश्य देख कर मैं हक्का-बक्का रह गया. उसकी शीशे की खिड़की टूटी हुई थी और उसमें एक स्त्री मुंह ढंक कर शौच कर रही थी! इसके बाद एक-एक कर सारे स्लीपर कोच मैंने छान मारे. किसी के शौचालय में खिड़की नहीं थी.
मैंने उन दसों स्लीपर कोचों के नंबर नोट कर लिये, जिनके शौचालय में कोई परदा नहीं था. सबकी खिड़कियां टूटी हुई थीं और अधिकतर शौचालयों में तीन-चार यात्राी (स्त्री-पुरुष और बच्चे) ठुंसे हुए यात्रा कर रहे थे. यह था एक प्रतिष्ठित सुपरफास्ट ट्रेन का बेपरदा शौचालय. जब स्लीपर कोच की यह दुरवस्था थी, तब अनारक्षित कोच की बात कौन करे! मेरी इच्छा हुई कि प्रमाण के लिए कुछ फोटो ले लूं, मगर दो कारणों से मेरे कदम रुक गये.
पहला यह कि इस अमानुषिक दृश्य का फोटो लेने का मुझमें नैतिक बल नहीं था. दूसरा, यह कोई अभूतपूर्व घटना नहीं है. गर्मियों में बिहार और खासकर उत्तरी बिहार की लगभग हर ट्रेन की यही दु:स्थिति रहती है, जिसे रेलवे अधिकारी बड़ी बेहयाई से नजरअंदाज कर देते हैं, क्योंकि वे सैलून में चलते हैं, क्योंकि वे इस विलक्षण जनतंत्र के विलक्षण सेवक हैं.
देश के दूर-दराज के इलाकों को राजधानी दिल्ली से जोड़ने के लिए संपर्क क्रांति ट्रेन चलाने की परिकल्पना पूर्व रेलमंत्री नीतीश कुमार ने की थी. उन्होंने गरीब यात्राियों की सुविधा के लिए जन साधारण एक्सप्रेस और जन शताब्दी जैसी ट्रेनें चलायीं, जिनकी रफ्तार राजधानी और शताब्दी ट्रेनों की तरह ही थी, मगर टिकट सस्ता था. जब उन्होंने दरभंगा से नयी दिल्ली के लिए बिहार संपर्क क्रांति चलायी होगी, तब निश्चय ही ललित बाबू की आत्मा तृप्त हुई होगी. मगर आज इस ट्रेन की जो दशा मैंने देखी, उसके बाद गर्व करने को कुछ बचा नहीं.
यह ट्रेन नयी दिल्ली से दोपहर में 2:15 बजे चलती है और अगले दिन 11:25 बजे दरभंगा पहुंचती है. तब तक बिना खाये-पिये और बिना शौचालय गये कोई कैसे रह सकता है! क्या इसी यंत्रणापूर्ण यात्रा के लिए गरीब-असहाय यात्राी सामान्य ट्रेनों से ज्यादा पैसे देकर, दो-दो मास पहले इसका टिकट बुक करते हैं? जो सरकार शौचालय को लज्जा और स्वच्छता से जोड़ कर दिन-रात प्रचार करते नहीं थकती, उसका रेलयात्राियों की इज्जत और सुख-सुविधा का यही नजरिया है? देश के अमीरों के लिए बुलेट ट्रेन चलाने से पहले इस बेपर्दगी को तो ढंकिये प्रभो, वरना विदेशी पर्यटक इन शौचालयों को देख कर भाग जायेंगे.
मुङो याद आया, मॉरीशस में पोर्ट लुई का वह घाट, जहां छह-छह महीने की समुद्री यात्रा करने के बाद भारतीय गिरमिटिया मजदूर अधमरी अवस्था में उतारे जाते थे और एक सप्ताह तक डॉक्टरों की विशेष देख-रेख में रखे जाते थे. दो दिनों तक तो उन्हें सिर्फ दाल का पानी दिया जाता था! मुङो लगता है कि इस तरह की ट्रेनों में मवेशियों की तरह ठूंस कर जो यात्रा करते हैं, उन्हें भी गांव जाकर दो दिन होश नहीं आयेगा.
मैंने जब तहकीकात की, तो पता चला कि उत्तर बिहार जानीवाली अधिकतर द्रुतगामी ट्रेनों के शौचालयों में खिड़कियां नहीं हैं. इसका एक कारण यह भी बताया गया कि कोच में जगह न मिल पाने की स्थिति में शौचालयों में यात्रा करने के लिए बाध्य होनेवाले यात्राी स्वयं खिड़कियां तोड़ देते हैं, जिससे उनको ताजी हवा मिले. देश की राजधानी दिल्ली में इस समय उत्तरी बिहार के लाखों लोग आजीविका के कारण रहते हैं. उनके गांव आने-जाने का भी समय लगभग निर्धारित है- दीवाली, छठ, होली और अप्रैल-मई में लगन के दिन. इसलिए उनकी आवाजाही को अनिश्चित या अप्रत्याशित घटना नहीं माना जा सकता. क्या लाखों यात्राियों के लिए कुछ सौ की क्षमतावाली दो-चार ट्रेनें पर्याप्त हैं?
सुना है कि नयी सरकार ने विशेष ट्रेनों को चलाना बंद कर उनकी जगह ऐसी ट्रेनें चलाने का मन बनाया है, जिसमें हर टिकट ‘तत्काल’ की दर वाला होगा. सोच रहा हूं कि यदि ललित बाबू या नीतीश जी रेलमंत्री होते, तो कम-से-कम इतना जरूर करते कि जो यात्राी दो महीने पहले तक आरक्षण कराता, उसकी सुविधाजनक यात्रा के लिए विशेष ट्रेनों की व्यवस्था की जाती.
रेल-सेवा को नफा-नुकसान के तराजू से तौलना देश के लिए हानिकारक है. जनवरी,1975 में समस्तीपुर बम विस्फोट में मारे जाने से कुछ घंटे पूर्व, मिथिलांचल के प्रथम रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र ने दरभंगा के एक समारोह में सवाल उठाया था कि ‘पिछड़े अंचलों में रेल का विस्तार अलाभकारी आर्थिक कार्य होगा, इसलिए क्या उन क्षेत्रों में कभी रेल का विस्तार नहीं किया जाये? क्या यह लोककल्याणकारी राज्य की घोषित नीति का विरोध नहीं होगा?’
उन्होंने कमला-कोसी जैसी सर्वनाशी नदियों के मारे अलग-थलग पड़े लोगों के लिए न केवल आमान-परिवर्तन की अनेक योजनाएं बनायीं, बल्कि झंझारपुर-लौकहा, प्रतापगंज-फारबीसगंज, सकरी-हसनपुर जैसे नये रेलपथों के लिए समयबद्ध कार्यक्रम भी बनाये.
उनमें कुछ योजनाएं परवर्ती बिहारी रेलमंत्री राम बिलास पासवान, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के अथक प्रयास से पूरी हुईं, मगर सकरी-हसनपुर रेलमार्ग आज भी किसी और जन-नायक की प्रतीक्षा कर रहा है. आज उत्तरी बिहार के लोग सुपरफास्ट ट्रेनों में टिकट कटा कर भी यदि मवेशियों की तरह ठूंस कर यात्रा करने के लिए मजबूर हैं और किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगती, तो यह रेल महकमे की असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है.
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