।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
हिंदी के पुरोधा कहें, उसके गद्य के विधायक, खड़ी बोली के उन्नायक अथवा ‘द्विवेदी युग’ के प्रणोता, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का 150वां जयंती वर्ष आज से आरंभ हो रहा है, लेकिन हिंदी संसार में इसे लेकर ज्यादा हलचल नहीं हैं. उनके गृह जनपद रायबरेली में पिछले डेढ़ दशकों से सक्रिय ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति’ ने जरूर इस वर्ष देशभर में उनकी यादों को समर्पित कम से कम 150 कार्यक्रमों के आयोजन का संकल्प लिया है.
समिति के प्रवक्ता गौरव अवस्थी कहते हैं कि उनकी इच्छा है कि इस पूरे साल द्विवेदी जी पर परिचर्चाएं और गोष्ठियां हों और उन पर केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकलें. फिलहाल, शुरुआत वे रायबरेली की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं में द्विवेदी जी के मौलिक व अनूदित ग्रंथों के पाठ से कर रहे हैं. वर्षात पर वे ऐसे कार्यक्रमों का संकलन तो प्रकाशित करेंगे ही, 1936 में बाबू श्यामसुंदर दास और रायकृष्ण दास के संपादन में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित आचार्य द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को भी पुनमरुद्रित करेंगे.
प्रसंगवश, आचार्य द्विवेदी ऐसे कठिन समय में साहित्य सेवी बने, जब हिंदी अपने कलात्मक विकास की तो क्या सोचती, नाना प्रकार के अभावों से पीड़ित थी. तब आचार्य द्विवेदी ने नींव की ईंट बन कर ज्ञान के विविध क्षेत्रों, जैसे इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्व, चिकित्सा, राजनीति व जीवनी आदि से संबंधित साहित्य के सृजन, प्रणयन व अनुवादों की मार्फत न सिर्फ अभावों को दूर किया, बल्कि ‘अराजक’ हिंदी गद्य को मांजने, संवारने, पुष्ट, परिष्कृत व परिमाजिर्त करने को लक्ष्य बना कर उसकी पूर्ति में अपना समूचा जीवन लगा दिया. आज हम जिस हिंदी गद्य से लाभान्वित हो रहे हैं, उसका वर्तमान स्वरूप, संगठन, वाक्यविन्यास तथा व्याकरण की शुद्घता आदि सब कुछ काफी हद तक द्विवेदी जी की ही देन है.
हिंदी साहित्य सम्मेलन की ‘साहित्य वाचस्पति’ और नागरी प्रचारिणी सभा की ‘आचार्य’ उपाधियों से अलंकृत महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म 9 मई, 1864 को रायबरेली जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर गंगा किनारे बसे दौलतपुर गांव में रामसहाय द्विवेदी के पुत्र के रूप में हुआ था. राम सहाय ने अपने नाम से तुक-ताल मिला कर बेटे का नाम रखा था- महावीर सहाय. लेकिन बेटा गांव की प्राथमिक पाठशाला में पढ़ने गया, तो प्रधानाध्यापक ने जाने कैसे उसका नाम ‘महावीर सहाय’ के बजाय ‘महावीर प्रसाद’ लिख दिया. पिता राम सहाय समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दे पाये और यह भूल स्थायी बन गयी.
कहते हैं कि उनकी ज्ञानपिपासा कभी तृप्त नहीं होती थी. जीविका के लिए रेलवे में विभिन्न पदों पर रहते हुए ट्रैफिक कार्यालय की नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ 1903 में आया, जब वे प्रतिष्ठित ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक बने और 1920 तक इस दायित्व को पूरी निष्ठा व जिम्मेवारी से निभाया. हिंदी साहित्य के कई इतिहासलेखक उनके सरस्वती के संपादनकाल को ही ‘द्विवेदी युग’ की संज्ञा देते हैं जबकि कई अन्य इस युग की शुरुआत कुछ वर्ष पहले से मानते हैं. हिंदी गद्य के विकास के कालक्रमों में प्राचीन युग व भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग तीसरे नंबर पर आता है.
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व इस अर्थ में बहुआयामी था कि वे सजर्क भी थे, आलोचक भी और अनुवादक भी. उन्होंने 50 से अधिक ग्रंथों व सैकड़ों निबंधों की रचना की. उन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा तो की ही, हिंदी समाज को कुरीतियों व रूढ़ियों से उबारने के नये आयाम व आदर्श भी प्रदान किये. द्विवेदी जी की अपने गांव-जवार व जिले में एक सरल, विरल व विलक्षण विद्वान की छवि थी. छुआछूत के तो वे बड़े ही मुखर विरोधी थे.
एक बार उनके गांव की एक दलित महिला के पैर के अंगूठे में सांप ने डंस लिया, तो महिला का जीवन बचाने के लिए उन्होंने झट अपना जनेऊ उतार कर उसके अंगूठे में बांध दिया. कतई परवाह नहीं की कि इससे धर्माधीश उन पर कुपित हो सकते हैं.
हां, ‘सरस्वती’ के संपादन से निवृत्त होने के बाद अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष उन्होंने कठिनाइयों के बीच अपने गांव में ही काटे. राष्ट्रीय स्मारक समिति द्वारा जिले में उनकी दो प्रतिमाएं स्थापित करायी गयी हैं.