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वंजारा का लेटर बम और नरेंद्र मोदी

।।अरविंद मोहन।।(वरिष्ठ पत्रकार)गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाने की घोषणा के साथ ही अगर लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा देकर बम फोड़ा था, तो उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से ठीक पहले राज्य के ‘कुख्यात’ पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा ने पुलिस […]

।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाने की घोषणा के साथ ही अगर लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा देकर बम फोड़ा था, तो उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से ठीक पहले राज्य के ‘कुख्यात’ पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा ने पुलिस सेवा से इस्तीफा देते हुए मोदी और उनसे भी ज्यादा उनके सबसे भरोसेमंद साथी अमित शाह को कठघरे में खड़ा किया है. हालांकि बहुत से लोग इसे हैरानी की चीज नहीं मानते. उनका मानना है कि मोदी के साथ ये सभी चीजें लगी ही रहेंगी.

कई का यह भी कहना है कि मोदी खुद भी इन चीजों के बिना नहीं रह सकते और उनके लिए चुनौतियां जितनी अधिक होंगी, उनकी प्रतिभा भी उतनी ही निखरेगी. पर मुझ जैसे काफी सारे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि ये सभी मामले मोदी के कद और उनकी संभावनाओं को छोटा करते हैं. और आज मोदी का कद वही नहीं रह गया है जो गुजरात विधानसभा चुनाव जीतने के बाद था. तब से मोदी ने पार्टी के अंदर तो अपनी स्वीकार्यता बढ़ायी है और अब पार्टी उनके अलावा किसी और को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित भी नहीं कर सकती, लेकिन दूसरी सच्चाई यह भी है कि संघ समेत हर तरफ से ‘मंजूरी’ हो जाने के बाद भी पार्टी उन्हें उम्मीदवार घोषित करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है.

अब यह मान लेना कि वंजारा के पत्र के बाद मोदी की उम्मीदवारी की घोषणा खटाई में पड़ जायेगी, जल्दबाजी होगी, पर इतना कहने में मुश्किल नहीं है कि अब इसके विधानसभा चुनावों तक टल जाने की संभावना बढ़ गयी है. अगर ऐसा हुआ तो मोदी का इकबाल गिरेगा ही. पार्टी के शीर्ष नेताओं की मर्जी के खिलाफ, सिर्फ संघ और कार्यकतरओ के समर्थन के बल पर जिस तरह मोदी ने आडवाणी समेत सभी बड़े नेताओं के विरोध को दरकिनार कर दिया था, उससे उनका इकबाल बुलंद हुआ था. तब गुजरात की जीत की रोशनी में यह भी लगता था कि सुशासन, विकास और तुरत-फुरत मजबूत फैसले लेने के कारण मोदी की छवि और निखरेगी और राष्ट्रीय स्तर पर वे भाजपा को नये लोगों का वोट दिलवा पाने में सक्षम होंगे. पिछले कुछ आम चुनावों में भाजपा का वोट गिरता ही गया है और पिछली बार तो मात्र 18 फीसदी रह गया था, जिससे नीचे आने का मतलब होगा कि पार्टी मुख्य मुकाबले में दिखने की स्थिति से भी बाहर हो जायेगी. मोदी अगर अपनी रफ्तार को भी बरकरार रखते, तो संभव था कि अब तक उनकी हवा बेहतर हुई होती और कम-से-कम वंजारा जैसे उनके भक्त इतनी जल्दी धैर्य नहीं खोते.

वंजारा के पत्र को सिर्फ उनका धैर्य खोना मान लेना गलत होगा. अभी जेल में पड़े वंजारा मोदी के उन गिने-चुने विश्वस्त अधिकारियों में रहे हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ दावं पर लगा कर भी मोदी की इच्छा के अनुसार काम किया है. इस क्रम में उन्होंने न जाने कितनी जगहों पर कायदे-कानून का उल्लंघन भी किया. लेकिन ऐसा अकेले उनके साथ ही नहीं हुआ है. गुजरात में ऐसी काफी बड़ी टोली थी, जिसके सहारे मोदी मनचाहे नतीजे हासिल करते रहे हैं, और इसमें अब तीस लोग तो जेल में ही हैं. कुछ समय पहले एक पत्रिका द्वारा किये रहस्योद्घाटन से जाहिर हुआ था कि अब कई अधिकारियों का धैर्य जवाब देने लगा है. उन्हें लगता है कि मोदी ने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए उनका इस्तेमाल कर लिया और वे एकाध प्रोमोशन के चक्कर में कायदे-कानून भूल कर गलती कर बैठे हैं. उन्हें यह भी लगता है कि अपना काम निकल जाने के बाद मोदी ने उन्हें उनकेहाल पर छोड़ दिया है. वे जब से राष्ट्रीय नेता बनने का ख्वाब देख रहे हैं, गुजरात दंगों समेत सभी गड़बड़ियों का जिम्मा अधिकारियों और दूसरों के मत्थे मढ़ कर हाथ झाड़ लेना चाहते हैं. वंजारा के पत्र का भी मुख्य स्वर यही है. यही बात आज बाबू बजरंगी और माया कोडनानी जैसे दंगाइयों को भी लगती है और गुजरात चुनाव में लेउवा पटेलों की नाराजगी की एक वजह भी यही थी.

वंजारा इतने पर ही नहीं रुकते. वे तो पूरी गुजरात सरकार के जेल में होने का तर्क भी देते हैं. उनका कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति को लागू करने में हम जेल तक पहुंच गये हैं, उन्हें बनाने और लागू करानेवाले लोग कैसे निदरेष हो सकते हैं. वंजारा और मोदी के रिश्तों या इस पत्र में उनको भगवान माननेवाली बात को लेकर कुछ कहने की जरूरत नहीं है. लेकिन जब एक अन्य आइपीएस अधिकारी जीएल सिंघल इशरत जहां फर्जी एनकाउंटर मामले में लगभग ऐसी ही बातचीत के सीक्रेट टेप सीबीआइ को सौंप चुके हैं, तो इससे यही पुष्टि होती है कि गुजरात सरकार और मोदी ने अपना काम निकल जाने और किसी भी मामले में अपना नाम सीधे न आने की स्पष्टता के साथ ही उन सबसे मुंह फेर लिया, जिन्होंने अपनी जान और नौकरी की बाजी लगाने में जरा भी हिचक नहीं दिखायी. अब वे टूट रहे हैं, तो यह मात्र निराशा और सजा पाने का डर ही नहीं है. इसमें कहीं न कहीं असली सूत्रधार के आगे निकल जाने की रणनीति पर नाराजगी भी है- ‘यूज एंड थ्रो’ की संस्कृति अब तक अमेरिकी ही मानी जाती थी.

ऐसा भी नहीं है कि मोदी वंजारा जैसे अप्रत्याशित कोने से आये तूफान से परेशान हों. यह सब उनका इतिहास है और यह पीछा करेगा, यह वे भी जानते होंगे. असली गड़बड़ इधर खुद उनकी तरफ से शुरू हुई है. उनके काफी सारे बयान तो सामान्य मर्यादा और शिष्टाचार की सीमा को लगभग लांघते हैं. वे खुद उन्हीं मुद्दों का सहारा लेना चाहते हैं, जिनसे वे मुक्ति चाहते हैं. गुजरात गौरव उनको कितना सीमित करता है, इसका शायद उनको अंदाजा नहीं है. फिर उनका हिंदुत्व उसी ब्रांड का है कि कोई सिंघल, कोई वंजारा एक टेप या एक पत्र के द्वारा उनको मुश्किल में डाल देगा. दूसरा, वे खुद भी 84 कोस परिक्रमा जैसे मुद्दों से मुंह नहीं मोड़ना चाहते. अमित शाह के माध्यम से या खुद भी संघ समर्थक साधुओं के माध्यम से वे अपना खास हिंदुत्व कार्ड खेलते भी रहना चाहते हैं. वे खाद्य सुरक्षा बिल के मसले पर तो विरोधी बनने का साहस दिखाते हैं, लेकिन कॉरपोरेट विकास, गुजराती अस्मिता और संघ ब्रांड के हिंदुत्व से जरा भी दूरी दिखाने को तैयार नहीं हैं. यह चीज उन्हें और उनकी पार्टी को कितना नुकसान पहुंचा रही है, इसका अंदाजा शायद उनको नहीं है. और ऐसे में जब वंजारा जैसे लोग खुल कर अपनी नाराजगी, बेचैनी और गुस्सा दिखाने के लिए मोदी पर हमला करते हैं, तो उसकी चोट ज्यादा ही तीखी लगती है.

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