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अराजकतावादियों का संघ!

।।सुधांशु रंजन।।(वरिष्ठ पत्रकार)संसद में लगातार हो रहे व्यवधान से राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति व्यथित हैं. स्वाधीनता की 67वीं जयंती की पूर्वसंध्या पर देश को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दुख जताया कि संसद और राज्य विधानसभाएं विधान बनाने का मंच न होकर अखाड़े हो गये हैं, जहां कुश्ती होती है. इसके एक दिन पहले […]

।।सुधांशु रंजन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
संसद में लगातार हो रहे व्यवधान से राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति व्यथित हैं. स्वाधीनता की 67वीं जयंती की पूर्वसंध्या पर देश को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दुख जताया कि संसद और राज्य विधानसभाएं विधान बनाने का मंच न होकर अखाड़े हो गये हैं, जहां कुश्ती होती है. इसके एक दिन पहले उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने राज्यसभा में हो रहे हंगामे पर सदस्यों से प्रश्न किया कि क्या वे चाहते हैं कि यह ‘अराजकतावादियों का संघ’ बन जाये, क्योंकि नियमों एवं शिष्टाचार की धज्जियां उड़ रही हैं. विपक्ष ने इस टिप्पणी पर कड़ा ऐतराज किया और सत्ता पक्ष ने भी सभापति को इसे कार्यवाही से बाहर करने को कहा.

अराजकतावाद एक राजनीतिक दर्शन है. अराजकतावादी वे हैं, जो अराजकता के सिद्घांत में यकीन रखते हैं. हालांकि हामिद अंसारी के कहने का यह आशय नहीं था. आम बोलचाल में अराजकता का अर्थ अव्यवस्था, दिशाहीनता तथा किसी बाध्यकारी व्यवस्था का न होना है. अंसारी के कहे मुताबिक यदि संसद सचमुच ‘अराजकतावादियों का संघ’ बन जाये, तो इससे लिओ तॉलस्तॉय एवं मैक्स स्टर्नर के विचारों से साम्य रखनेवालों को काफी खुशी होगी. अच्छा मौका है, जब अराजकतावाद के सिद्घांत की समीक्षा की जाये, क्योंकि अराजकतावादियों का एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है. यद्यपि तॉलस्तॉय एवं स्टर्नर अराजकतावाद के अग्रणी चिंतक माने जाते हैं, पियरे-जोसेफ प्रूधन (1809-65), मिरवाइल बाकुनिन (1814-76) तथा पीटर क्रोपॉटकिन (1842-1921) इसके असली संस्थापक माने जाते हैं.

1789 के फ्रांसीसी क्रांति के तीन आदर्शो- आजादी, समानता एवं भाईचारा- में प्रूधन ने आजादी को पहला स्थान दिया और इस क्रम को किसी प्रकार उलटने के वे धुर विरोधी थे. अराजकतावादियों का स्पष्ट मत था कि राज्य व्यक्तिगत या सामूहिक स्वतंत्रता में सबसे बड़ा बाधक है. अभी विश्व के कुछ हिस्सों में अराजकतावादी सक्रिय हैं. मार्च 2009 में लंदन में मैं ऐसे अराजकतावादियों से मिला, जो जी-20 सम्मेलन का विरोध कर रहे थे. मैंने एक से पूछा, क्या आप अराजकतावादी हैं? उसका जवाब था, नहीं, लेकिन मैं अराजकतावाद में भरोसा रखता हूं. राजनीतिशास्त्री बौंड्यूरैंट तो गांधीजी को भी दार्शनिक अराजकतावादी मानते थे, क्योंकि उनकी ‘रामराज्य’ या ‘ग्राम स्वराज’ की अवधारणा में राज्य की कोई विशेष भूमिका नहीं थी. जहिर है, हमारे सांसद उस अर्थ में अराजकतावादी नहीं हैं कि व्यक्तिगत आजादी उनके लिए इतना बहुमूल्य है, और न ही उपराष्ट्रपति का ऐसा आशय था. सांसद अराजकतावादी हैं, क्योंकि वे सदन की कार्यवाही को लगातार बाधित करते हैं.

1950 और 60 के दशक में संसद की गरिमा अलग थी, क्योंकि बहस का स्तर बहुत ऊंचा था. विधायी कार्य सुचारू रूप से होते थे तथा कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित थी. सत्ता पक्ष के सदस्य भी सरकार को कटघरे में खड़ा करते थे. उस वक्त के नेताओं का भाषण इतना विचारोत्तेजक होता था कि सांसद उन्हें सुनने का मौका नहीं छोड़ते थे.

संसद की भूमिका कभी भी आदर्श नहीं रही. 1909 में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश संसद को बांझ कहा था. इसके बावजूद 1937 में उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की मांग की, क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं है. हाउस ऑफ कॉमंस में भी व्यवधान होता है. लेकिन वहां कुर्सियों की जगह बेंच हैं, ताकि सदस्य उन्हें विरोधियों पर न फेंकें. हालांकि, वहां विरोध दर्ज करने के लिए कार्यवाही शायद ही बाधित की जाती है. 17 फरवरी 1902 को पारित प्रस्ताव, जिसे उसी वर्ष एक दिसंबर को स्टैंडिंग ऑर्डर आफ द हाउस बनाया गया, स्पीकर को अधिकार देता है कि गंभीर अव्यवस्था की स्थिति में वह सदन को स्थगित कर सकते हैं.

ऐसा सोचा गया था कि कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने से हमारे माननीय सांसद अनुशासित रहेंगे. परंतु हुआ ठीक इसका उल्टा. सौभाग्य से कैमरे की पहुंच संसद की स्थायी समितियों की बैठक में नहीं है, इसलिए वहां काम गंभीरता से होता है. सदस्य दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर मतैक्य बनाने का प्रयास करते हैं. परंतु संसद में उनका व्यवहार बदल जाता है. जो भी हो, यही सांसद अपने साझा हितों की रक्षा के लिए अद्भुत एकता का प्रदर्शन करते हैं. चाहे वह आरटीआइ के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर लाने, या आपराधिक मामलों में सजा मिलने पर वर्तमान सांसदों/विधायकों की सदस्यता बचाने, या फिर अपना वेतन तथा सुविधाएं बढ़ाने का मामला हो.

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