।।शैलेश कुमार।।
(प्रभात खबर, पटना)
पांच रुपया इन दिनों हर किसी की जुबान पर है. राज्यसभा के एक सांसद ने दावा किया कि पांच रुपये में दिल्ली में एक वक्त भोजन किया जा सकता है, जिसके बाद खबरिया चैनलों और अखबारों ने दिल्ली की सड़कों की खाक छाननी शुरू कर दी कि पांच रुपये में कहां खाना मिलता है? फिर हैदराबाद में नरेंद्र मोदी की रैली के टिकट का दाम भी पांच रुपया रखा गया और इस पर भी खूब हो-हल्ला मचा. पांच रुपये में भरपेट भोजन मिलता है या नहीं और पांच रुपये का टिकट खरीद कर कितने लोग किसी रैली में जाते हैं, इसका आकलन करने के लिये धुरंधर बैठे हैं. मैं अपने अनुभव से यह बताऊंगा कि पांच रुपये से जिंदगी कैसे बदल सकती है?
शिकायत करने की हमारी आदत है. गरीबी बढ़ती है तो सरकार को दोषी ठहराते हैं. दंगे होते हैं तो प्रशासन पर दोष मढ़ते हैं. सड़कों पर गंदगी के लिए नगर निगम को जिम्मेवार ठहराते हैं. लेकिन बेंगलुरू में एक ऐसा छात्र समूह है जो समस्याओं के लिए किसी पर उंगली नहीं उठाता, बल्कि हर माह छात्रों से पांच-पांच रुपये जमा करता है. इससे अनाथ बच्चों की जरूरतें पूरी करता है. गांवों के अत्यंत गरीब बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाता है. उनके इलाज में सहयोग करता है. बेसहारा बुजुर्गो की मदद करता है.
मिशन फाइव के नाम से चलनेवाले इस अभियान की गतिविधियों का मैं भी हिस्सा रहा हूं और मैंने अनुभव किया है कि छात्रों के हर महीने पांच रुपये के योगदान से कुछ लोगों की जिंदगी में कितना बदलाव आया है. कहने को तो बात केवल पांच रुपये की है जो एक समोसा खाने, चाय पीने या ऑटो के भाड़े में ही खर्च हो जाता है, लेकिन जब यह पांच रुपया किसी जरूरतमंद की जिंदगी संवारने का जरिया बन जाये और साथ में छात्रों को उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का एहसास करा कर उन्हें कल्याणकारी गतिविधियों से जोड़े तो इसका महत्व बढ़ जाता है.
पांच रुपये के इस अभियान को शुरू हुए करीब सात वर्ष बीत चुके हैं. इससे जहां एक दुर्घटना में बायां हाथ गंवा चुकी आठ वर्षीय पद्मा को नयी जिंदगी मिली, वहीं भीख मांगनेवाले गणोश को स्कूल जाने का मौका मिला. अपनों द्वारा ही घर से निकाल दी गयी 90 वर्ष की मुनियम्मा को जहां पांच रुपये के अभियान की बदौलत सम्मान की मौत नसीब हुई, वहीं दिल की बीमारी से पीड़ित बच्ची प्रेशीला सात वर्ष और जिंदा रह सकी. इस अभियान का जिक्र करने का मेरा मकसद बस यह बताना है कि पांच रुपये का भी महत्व है. यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा इसके प्रति क्या दृष्टिकोण है और हम इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं. पांच रुपये का मोल तो पांच रुपया ही रहेगा, लेकिन इसका वास्तविक मूल्य समझना हमारी सोच पर निर्भर करता है.