।। चंदन श्रीवास्तव ।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
बीते दशकों में भारतीय राजनीति अगर गठबंधन की राजनीति तक पहुंची है, तो इसका राज मतदाताओं के विवेक में छिपा है. इस विवेक को चुनावी वेला में बचाये रखने की जरूरत है.
चुनावी युद्ध अभी दूर है, पर रणभेरी बज चुकी है. रणभेरी का बजना एक संकेत होता है कि अब रोजमर्रा के नियम कुछ देर के लिए स्थगित हो जायेंगे और जो चलता आ रहा है उससे कुछ अलग होगा. राजनीति में फिलहाल यही हो रहा है, कुछ ऐसा कि राजनीतिक दलों के स्थापित चरित्र की पहचान मुश्किल हो उठी है!
समाजवादी पार्टी जताती रही है कि उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का दर्दमंद उस सरीखा कोई और नहीं. एसडीएम दुर्गाशक्ति नागपाल के निलंबन के मुद्दे पर अपनी जिद दिखा कर सपा ने फिर से यही साबित करना चाहा.
राजनीति की इस विशेष शैली के कारण ही मुलायम सिंह को बरसों से चुनावी बहस के मंच से ‘मौलाना मुलायम’ कहा जाता रहा है. लेकिन अचरज कीजिए कि भाजपा से 36 का आंकड़ा रखनेवाले मुलायम भाजपा की सहयोगी विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेताओं से भेंट कर रहे हैं. बीते शनिवार को उनसे विहिप के एक नहीं ग्यारह नेताओं की भेंट हुई.
कहा गया कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के नाम पर विहिप यात्र करनेवाली है, इसलिए यह भेंट प्रशासनिक सहायता के लिए थी, पर मायावती बोलीं कि ‘चुनाव जब भी नजदीक होते हैं, मुलायम सिंह और बीजेपी व उसके सहयोगी संगठन राजनीतिक रणनीति तैयार करने के लिए एकजुट हो जाते हैं.’
भेष बदल कर मतदाताओं की मति मूड़ने के खेल में ‘मौलाना मुलायम’ अकेले नहीं हैं. कल तक जिनकी राजनीति अपने को ‘हिंदू–हृदय–सम्राट’ कहने–कहलवाने पर टिकी थी और जो एक मौलाना की टोपी पहनने से इनकार कर रहे थे, उन नरेंद्र मोदी को चुनाव–प्रचार की कमान थामते ही अचानक मुसलिम मतदाताओं की याद सताने लगी है.
बात–बात पर ‘गुजराती अस्मिता’ का जयराग गाने और ‘शेष भारत बनाम गुजरात’ का द्वंद्व–युद्ध ललकारने वाले मोदी अचानक हैदराबाद में तेलुगु–तराना गाते दिखे, तो कच्छ के अपने 15 अगस्त वाले भाषण में गुजराती से किनारा कर हिंदी पर उतर आये. और, दिल्ली में आकर बीते हफ्ते ठेठ हिंदी में बोले कि उनकी पार्टी अपने दम पर 272 सीटें जीतनेवाली है.
इसलिए पार्टी की कोशिश मुसलिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की होगी. बीते दिन चुनावी रणनीति तय करने के लिए दिल्ली में भाजपा की बैठक हुई, जिसमें मोदी का तर्क था ‘यदि गुजरात में 20-25 फीसदी अल्पसंख्यक वोट मुङो पड़ते हैं तो पूरे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?’
यह तो शुरुआत है. अगले कुछ महीनों में हर तरह के ध्रुवीकरण के लिए तैयार रहिये. जो पार्टियां जात–पांत–धर्म से इतर सिर्फ और सिर्फ विकास की माला जपते हुए राजनीति करती हैं, वे भी मतदाताओं को हिंदू–मुसलिम, अगड़ा–पिछड़ा, दलित–ब्राह्मण के चौखटे के भीतर बांट कर गोलबंद करने को आतुर नजर आ सकती हैं.
जिन पार्टियों ने अस्मितापरक राजनीति को अपना आधार बनाया है, वे आप तक यह कहते पहुंच जाएंगी कि आपके वोट पर पहला हक उनका है. यानी पार्टियां जाति–धर्म–क्षेत्र से लेकर राष्ट्रीयता तक की भावनाओं को उभार कर मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश में जुटेंगी.
चुनावी राजनीति और भारतीय लोकतंत्र के विशेषज्ञ कहेंगे कि इसमें गलत क्या है? पार्टी शब्द ही अंगरेजी के ‘पार्ट’ से बना है जिसका अर्थ है ‘खंड’. तो अपने नाम के अनकूल पार्टियां बहुदलीय लोकतंत्र में होती ही हैं व्यापक समाज के हितों को खंड–खंड कर या हिस्सों में बांट कर उन हितों की टकराहट को तेज करने के लिए. हितों की इसी टकराहट का नाम तो लोकतंत्र है, जिसमें विजयी हित का फैसला बहुमत से होता है.
बहुदलीय लोकतंत्र में जीत की कुंजी चूंकि बहुमत के बूते हासिल होती है, इसलिए गौर से सोचा जाये तो कोई भी पार्टी किसी व्यापक समाज के किसी एक हितसमूह की राजनीति करके बहुमत हासिल नहीं कर सकती. वे एक तरफ उस खास हितसमूह को हमेशा अपना विश्वासपात्र बनाये रखना चाहती हैं जिसके बूते अपनी पहचान व साख गढ़ सकें, दूसरी तरफ जीत के लिए उन्हें एक से ज्यादा हितसमूहों का चाहिए, जबकि इन हितसमूहों में आपसी टकराहट होती है.
मिसाल के लिए मायावती की पार्टी की मौजूदगी और पहचान कुछ खास दलित जातियों की हितों के ध्रुवीकरण पर टिकी है, लेकिन चुनावी वेला में उन्हें भी अपनी सोशल इंजीनियरिंग के तहत ब्राह्मण–विरोध के परंपरागत चौखटे से निकल कर सवर्णो, खास कर ब्राह्मणों को अपने पीछे खींचने के लिए सामाजिक मेल–मिलाप के नये मुहावरे गढ़ने पड़ते हैं.
पार्टियों के लिहाज से सोचें तो जिस वक्त वे सत्ता से बाहर होती हैं वह वक्त उनके लिए अपनी मौजूदगी और पहचान के लिए जरूरी आधार हितसमूह की तरफ से राजनीतिक मुहावरे गढ़ने की होती है, जबकि चुनाव का वक्त ऐसे मुहावरे तलाशने का जो उनके आधार हितसमूह के भीतर कुछ और हितसमूहों को जोड़ कर जनाधार बढ़ा सके. भारतीय समाज की विविधता और विशालता पार्टियों को बाध्य करती है कि प्रांत या राष्ट्र के स्तर पर अपना कद बढ़ाने के लिए वे निरंतर अपनी प्रचलित छवि को तोड़ने और नये सिरे से गढ़ने के लिए तैयार रहें.
चुनावी रणभेरी बजने के साथ पार्टियां फिर से अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में भारतीय समाज की विशालता व विविधता के सम्मुख नत–मस्तक होकर अपनी छवि नये सिरे से गढ़ने में लगी हैं. पार्टियों के परंपरागत चरित्र में विरोधाभास इसी वजह से नजर आता है.
सच पूछिये तो हमारे लोकतंत्र की ताकत भी इसी में है कि वह किसी एक हितसमूह व उसकी दावेदारी करनेवाली पार्टी की जागीर कभी नहीं बना. कांग्रेस का अजेय जान पड़ता एकछत्र राज यदि गैर–कांग्रेसवाद की भावना से टूटा तो इसलिए कि गैर–कांग्रेसवाद बहुपक्षीय हितों की गोलबंदी का नाम था. गैर–कांग्रेसवाद ने देश के संघीय ढांचे के भीतर सूबों की अस्मितापरक राजनीति को पहचान दिलायी.
आज तो आलम यह है कि सूबों की राजनीति से ही केंद्र में बननेवाली सरकार का रूप और रंग–ढंग तय होता है. प्रांतों और केंद्र में कांग्रेस के एकछत्र शासन के दिनों से लेकर बीते छह दशकों में भारतीय राजनीति अगर गठबंधन की राजनीति तक पहुंची है, तो इसका राज भी मतदाता के विवेक में छिपा है. उसने अपना वोट हमेशा देश की विविधता और विशालता को बचाये रखने की भावना से डाला है.
भारतीय मतदाता के विवेक पर यकीन करते हुए संविधान सभा के समापनी भाषण में सभाध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि ‘हमारे देश के करोड़ों ग्रामीण मतदाता के पास वह विवेक है, जिसके जरिये वह अपने हित के साथ–साथ देशहित में फैसले कर सके.
मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं है कि वह अपना वोट सोच–समझ कर डालेगा और इस सिलसिले में भविष्य को लेकर आशंका करने की तनिक भी वजह नहीं है.’ जो विश्वास देश की बुनियाद रखनेवाले संविधान के निमार्ताओं ने भारतीय मतदाताओं के विवेक पर जताया था, जरूरत इस चुनावी रणभेरी के बीच उसको बचाये रखने की है.