।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
लोकसभा चुनाव निकट आने के साथ ही विश्व हिंदू परिषद को राममंदिर फिर से याद आया है और अयोध्या में उसकी सक्रियताएं फिर सुर्खियां बटोरने लगी हैं! अबकी बार इस ‘परंपरा’ में नया इतना ही है कि उसने यूपी में सत्तारूढ़ सपा से पुरानी दुश्मनी भुलाकर जिस अनूठे सद्भाव की स्थापना की, वह बहुत कमउम्र सिद्घ हुआ और उसके 25 अगस्त से 13 सितंबर तक प्रस्तावित ‘अयोध्या की चौरासी कोसी परिक्रमा’ कार्यक्रम पर प्रतिबंध के साथ ही दोस्ताना टकराव में बदल गया.
धार्मिक परंपरा के अनुसार यह परिक्रमा चैत्र माह में शुरू होकर बैशाख की पूर्णिमा तक चलती है, जो गत 25 अप्रैल से शुरू होकर 20 मई को समाप्त हो चुकी है. लेकिन भाजपा को चुनावी लाभ पहुंचाने के चक्कर में विहिप बीच में इसकी नयी परंपरा डालना चाहती थी.
उसके संरक्षक अशोक सिंघल इसके लिए सहयोग व सुरक्षा की मांग को लेकर गत 17 अगस्त को एक प्रतिनिधिमंडल के साथ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह से मिले और उनके गुण गाते हुए लौटे. इसे दोनों पक्षों के बीच किसी गुप्त समझौते के रूप में देखा जा रहा था.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की बात छोड़ दें, जिन पर विहिप नेताओं को भी दूसरे प्रदेशवासियों जितना ही अधिकार है, तो कोई सोचता तक नहीं था कि वे 30 अक्तूबर व दो नवंबर, 1990 को अयोध्या में निहत्थे कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले ‘राम–विरोधी’ व ‘राष्ट्रविरोधी’ ‘मौलाना मुलायम’ से भेंट करने जायेंगे और उनके आतिथ्य से अभिभूत होंगे. लेकिन वे गये और मुलायम ने भी उनका पूरा मान रखा. न सिर्फ ‘संतोचित’ स्वागत किया, बल्कि वार्ता में भी खासा सकारात्मक रुख दिखाया. अखिलेश ने उन्हें गेट पर रिसीव किया और फिर छोड़ने बाहर आये तो मुलायम कार तक विदा करके ही माने.
अपने मुसलिम वोटरों में गलत संदेश जाने या आजम खां के नाराज होने तक की परवाह नहीं की. बाहर निकल कर अशोक सिंघल ने कहा भी कि दोनों ने राममंदिर निर्माण के लिए मध्यस्थता में मुसलमानों के बीच अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने और मामले के संसद में उठने पर समर्थन देने पर विचार करने का आश्वासन दिया है. लेकिन उनकी खुशी थोड़ी ही देर कायम रह पायी.
सपा ने कह दिया कि मुख्यमंत्री या सपा सुप्रीमो द्वारा उनसे मिलने का इसके अलावा कोई और अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि पार्टी नहीं चाहती कि उसकी सरकार के बारे में धारणा बने कि वह किसी वर्ग या समुदाय के प्रति राग या द्वेष रखती है.
अब प्रेक्षक प्रतिबंध में भी सपा व विहिप की मिलीभगत देख रहे हैं. वैसे प्रतिबंध से सबसे ज्यादा खुश विहिप ही है, जिसे अपनी घटती साख के कारण परिक्रमा के लिए ज्यादा लोगों के न जुटने का अंदेशा मारे डाल रहा था और अब मुफ्त का प्रचार मिल रहा है.
प्रेक्षक मिलीभगत की कड़ियां जोड़ने के लिए पिछले दिनों मुलायम द्वारा संसद में राजनाथ के सुर में सुर मिला कर, फिर लखनऊ में लोहिया जयंती पर आडवाणी की तारीफ कर भाजपा से सुर मिलाने की कोशिश कर रहे हैं. उनके अनुसार मुलायम अगले आम चुनाव के बाद की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर सारे राजनीतिक विकल्प खुले रखना चाहते हैं.
लेकिन यह मानना गलत होगा कि नये दावं केवल मुलायम के मन में हैं. विश्वास करने के कारण हैं कि विहिप नेता भी यों ही उनसे मिलने नहीं चले गये. शायद वे दिखाना चाहते थे कि चुपचाप बैठे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार नहीं कर रहे और जो राममंदिर के सबसे ज्यादा विरोध में हैं, उनको भी साथ लेने के जतन कर रहे हैं.
इस दृष्टि से वे मुलायम की राजनीतिक विश्वसनीयता थोड़ी भी कम कर लें, तो अपने को सफल मानेंगे, क्योंकि विहिप के प्रति नरमी के कारण मुलायम का ‘एमवाइ समीकरण’ बिगड़ा, तो उनके निकट ‘आधी तजि सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे’ की स्थिति पैदा हो सकती है. ऐसी चालाकियों से प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करना विहिप का पुराना इतिहास है.
दूसरी ओर सपा के सूत्र कहते हैं कि मुलायम नहीं चाहते कि अखिलेश की उनके जैसी कट्टर या मुसलिमपरस्त छवि बने और उन्हें उनके जैसे सांप्रदायिक झंझावातों से टकराना पड़े. वे उन्हें सर्वस्वीकृत मुख्यमंत्री के तौर पर निखारना चाहते हैं. कचहरियों में ब्लास्ट के आरोपी खालिद मुजाहिद की हिरासत में मौत को लेकर विधानभवन के सामने तीन महीने से जारी धरने को लेकर उनका रुख शायद इसीलिए अतिसंवेदनहीन है. फिलहाल, अयोध्या में अभी यह शुरुआत है. लोकसभा चुनाव तक उसका ऐसे जाने कितने बवालों–सवालों से सामना होगा!