नयी दिल्ली के किसी रेड सिगनल पर जैसे ही गाड़ियों का काफिला रुका कई बच्चे दौड़ते हुए कारों के बंद शीशे खटखटाने लगे. किसी के हाथ में लाल गुलाब का गुलदस्ता तो किसी के पास खिलौने. कई के पास किताबें भी थी. वे बारी-बारी से बिना प्रतीक्षा किये सभी के पास जा रहे थे.
एक 12-14 साल की लड़की हाथ में कई किताबें लिए मेरे पास भी आयी और एक किताब ‘आइ एम मलाला’ को मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली-‘शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त पाकिस्तान की इस बहादुर लड़की की किताब ले लो साहब.’ मेरी निगाह उस किताब के बजाय उस मासूम-सी लड़की पर टिक गयी थी. लाल फीते की दो चोटियां उसके कंधे पर लटक रही थी. गेहुंआ रंग, गोल चेहरा, इकहरा बदन, मोतियों जैसे दांत. साधारण से कपड़े में भी वह बहुत खुबसूरत दिख रही थी. मुङो लगा जैसे उसमें मलाला की रूह उतर आयी हो. उतनी ही निश्चल, उतनी ही मोहक लग रही थी वह.
इतने में उसने अमर्त्य सेन की किताब ‘ऐन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’ दिखाते हुए कहा ‘तो ये ले लो साहब. अच्छी है.’ मैं अपलक उसे देख ही रहा था. उसने यह भांप लिया कि मैं उसकी किताबें नहीं खरीदूंगा. यह सच था. मेरे पास उस वक्त उतने पैसे नहीं थे कि मैं किताब ले पाता. लगा वह जाने वाली है. मैंने पूछा- तुम स्कूल नहीं जाती, तुम्हारे मां-बाप क्या करते हैं, तुम्हारा नाम क्या है? चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा ‘आइ एम मलाला.’ और भीड़ में कहीं गुम हो गयी. सिगनल ग्रीन हो चुका था, गाड़ियां आगे की ओर सरकने लगी थीं. मलाला की नन्ही-सी कलम बड़े-बड़े हथियारों के सामने जिस ताकत से खड़ी रही और आकर्षक जीत हासिल की उसने हर लड़की को विपरीत हालातों में मुस्कुराने का हसीन जज्बा दिया है. बधाई मलाला! यह मसाल जलती रहनी चाहिए. पर, दुख होता है यह देख कर दिल्ली जैसे महानगर में ट्रैफिक सिगनल पर मासूम लड़के/लड़कियां इस तरह पेट पालने के लिए विवश हैं.
बच्चों के आर्थिक उत्पीड़न की समाप्ति तथा सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने की जो लड़ाई मलाला ने पाकिस्तान के एक प्रांत से शुरू की थी, अब वह ग्लोबल हो चुकी है. दुनिया के लगभग हर मुल्क में मलाला के प्रशंसक हैं. तो क्या जो लड़की मुङो ट्रैफिक सिगनल पर किताबें बेचती मिली थी वह यह सब नहीं जानती? उसके हाथ में तो ‘आइ एम मलाला’ नामक किताब भी थी. तो फिर कैसे पूरा होगा मलाला का वह सपना जो उसने दुनिया भर की लड़कियों की बेहतरी के लिए देखा है. क्यूंकि मलाला अब एक लड़की का नाम भर नहीं, वह एक प्रतीक बन गयी है. भारत में ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत है जिनके मां-बाप अपनी तरक्की के लिए उन्हें पढ़ने नहीं देते. रोजी-रोटी उनकी पहली प्राथमिकता है. क्या यहां भी कोई मलाला आकर रोशनी फैलायेगी?
अखिलेश्वर पांडेय
प्रभात खबर, जमशेदपुर
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